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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/४०

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(२०)
[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।

नापेक्षा न च दाक्षिण्यं न प्रीतिर्न च संगतिः॥
तथापि हरते तापं लोकानामुन्नतो घनः[]॥३९॥

ऊंचे मेघको न तो किसी बात की अपेक्षा है, न चतुरता है, न प्रीति है, न संगति है तथापि (इतना होने पै भी) वह मनुष्यों की ताप हरण करता है। (साधु अकारण ही परोपकारी होते है)

समुत्पत्तिः स्वच्छे सरसि हरिहस्ते निवसति।
र्विलासः पद्मायाः सुरहृदयहारी परिमलः॥
गुणैरैतैरन्यैरपि च ललितस्याम्बुज तव।
द्विजोत्तंसे हंसे यदि रतिरतीवोन्नतिरियम्॥४०॥

हे अम्बुज! स्वच्छ सरोवर से तेरी उत्पत्ति हे, विष्णु के हाथ में तेरा निवास है, लक्ष्मी का तू विलासस्थान है, सुगंध तेरी देवताओं के भी मन को हरण करने वाली है, परंतु जो तू पक्षिश्रेष्ठ हंस से प्रीति करता तो ये और तेरे अपर गुण तुझ को परमोन्नत पदवी को पँहुचाते। अर्थात् गुण तेरे अभी भी श्रेयस्कर हैं परंतु जो तू हंसको अपना मित्र बनाता तो अत्यन्त ही प्रतिष्ठापात्र होता। (यदि दाता राजा अथवा किसी सम्मन मे कुछ दोष सूचित करता है तो यह अन्योक्ति सामयिक होगी)


  1. अनुष्टप्।