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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/६०

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(४०)
[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।

स्यान्तः स्फुरति ललितोदात्तमहिमा समर्थो यो
नित्यं स जयतितरां कोऽपि पुरुषः॥७९॥

स्वार्थको त्याग करके परार्थ के लिए सर्व मनुष्यों को जो संतत भेदरहित एक भाव से देखते हैं (शब्दार्थ-प्राणियों के प्रति भेदविगत एकत्वको संतत धारण करते हैं) जिनके अंतःकरण में स्वभावही से (दूसरों की) सुंदर तथा श्रेष्ठ महिमा स्फुरण होती है और जो नित्य (दूसरों के निवारण करने में समर्थ हैं ऐसे सत्पुरुष (संसार में) जय पावैं! (साधारण सज्जन प्रशंसा है-इसमें समासोक्ति अलंकार है। इस श्लोक में 'तत्पुरुष' समास और सत्पुरुष [सज्जन] की समता पाई जाती है अर्थात् जो गुण 'तत्पुरुष' समास में अर्थ भेद से होते हैं वही सत्पुरुष के भी कहे हैं)

वंशभवो गुणवानपि सङ्गविशेषेण पूज्यते पुरुषः।
नहि तुंबीफलविकलोवीणादण्डः प्रयाति महिमानम्॥८॥

सद्वंश[] [उत्तम कुल] में जन्म पाने और गुणवान होने पै भी सत्संगसे मनुष्य पूज्य होता है (अर्थात् बिना सत्संगके इन गुणोंसे युक्तनी मनुष्य शोभास्पद नहीं होता) वीणाका दंड जो बांसका बनता है बिना तुंबीके महिमा नहीं पाता (इसमें 'अर्थान्तरन्यास' अलंकार है)


  1. 'वंश' शब्द श्लिष्ट है; उसका अर्थ 'कुल' का और 'बांस' का भी है।