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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/६२

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(४२)
[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।


प्राप्त है! (सुष्ट राजा की राज्य से दुष्ट राजा की राज्य में विवश दास करनेवाली पीड़ित प्रजा का वृत्तांत प्रतीत होता है)

पुरो गीर्व्वाणानां निजभुजबलाहोपुरुषिकाम
हो कारंकारं पुरभिदि शरं सम्मुखतयः।
स्मरस्य स्वर्ब्धालानयनशुभमालार्च्चनपदं वपुः सद्यो
भालानलभसितजालास्पदमभूत्॥८४॥

देवताओंके सन्मुख अपने भुजबलके अहंकारको वारंवार कहनेवाले और शंकरके ऊपर बाणको चलानेवाले कामका (भी) शरीर, जिसका (अत्यंत सुंदर होनेके कारण) देवांगना भी दर्शन करती थीं (शंकर के) मस्तक से उत्पन्न हुई अग्निसे जलकर शीघ्रही भस्म होगया! तात्पर्य-परम पराक्रमी, स्वरूपवान और गुणवान पुरुष भी महात्माओंका अपकार करने से नष्ट हो जाते हैं (काम शंकर को विजय करने की इच्छा से गया परंतु वहां वह स्वयं भस्म हुआ अर्थात् कारण कुछ कारज कुछ हुआ इससे 'विषम अलंकार' समझना)

युक्तं सभायां खलु मर्कटानां शाखास्तरूणां मृदुलासनानि।
सुभाषितं चीत्कृतिरातिथेयी दंर्तेर्नखाग्रैश्च विपाटनानि[]॥८५॥


  1. 'उपजाति' छंदहै यह इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के मेलसे बर्तताहै