पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
विलासः१]
(४३)
भाषाटीकासहितः।

बंदरों की सभा में वृक्षों की शाखाओंके ही मृदुल आसन, चीत्कारही के सुभाषित[१] और दंतौं और नखौं से काटनेहीं के अतिथि सत्कार का होना उचित है (अविचारी मनुष्य जो चाहते हैं; करते हैं न बैठने के स्थान में बैठते हैं; न कहने की बात कहते हैं और न करने का कार्य करते हैं। चीकार मारना दंतों से दंश करना इत्यादि कपि की नीच जाति का धर्मही है ऐसा कहने से 'सम' अलंकार हुआ)

किं तीर्थं हरिपादपद्मभजनं किं रत्नंमच्छा मतिः
किं शास्त्रं श्रवणेन यस्य गलति द्वैतांधकारोदयः।
किं मित्रं सततोपकाररसिकं तत्त्वावबोधः
सखे कः शत्रुर्वद खेददानकुशलो दुर्व्वासनासंचयः॥८६॥

नारायण के चरणकमल का भजन है तो तीर्थों से क्या? मति श्रेष्ठ है तो रत्नौं से क्या? जिसका द्वैतरूपी[२] अंधकार नष्ट हो गया है उसको शास्त्रों के श्रवण करने से क्या? जिसे सर्व तत्त्वों का बोध है उसे संतत उपकार करने वाले मित्रों से क्या? और परम क्लेशकारी दुर्वासना से (बढ़के) शत्रु क्या? हे मित्र यह तू तुझ से कह? (इस श्लोक में तीर्थादिक उपमेयों की निरर्थकता वर्णन करने से 'प्रतीप' अलंकार हुआ)

निष्णातोऽपि च वेदांते साधुत्वं नैति दुर्ज्जनः।


  1. अच्छे भाषण. अच्छे भाषण।
  2. ईश्वर और जीव में भेद मानना।