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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/६४

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[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।

चिरं जलनिधौ मग्नो मैनाक इव मार्द्दवम्॥८७॥

सर्वदा समुद्र मे निमग्न रहते भी मैनाक पर्वत जैसे कोमलता को नहीं प्राप्त होता, वैसे दुर्जन मनुष्य वेद पारंगत होने पर भी साधुता को नहीं धारण करता (इसमे 'पूर्णोपमा, और 'अवज्ञा' अलंकार की संसृष्टि है)

नैर्गुण्यभेव साधीयो धिगस्तु गुणगौरवम्।
शाखिनोऽन्ये विराजते खंड्यंते चंदनद्रुमाः॥८८॥

गुण गौरव(गुणज्ञता) का धिक्कार करके अर्थात अपने गुण प्रकट न करके निर्गुणताही (भावार्थ मौनताही) धारण करना उचित है (क्यौंकि जैसे वन के अपर वृक्षों के होते भी चंदन ही काटा जाता है) उसी प्रकार गुणीजन ही अधिक त्रास दिये जाते इसमें ('अर्थांतन्यास' अलंकार है)

परोपसर्पणानंतचिंतानलशिखाशतैः॥ अचुंबितांतःकरणाः साधु जीवंति पादपाः॥८९॥

दूसरे के आगमन की चिंतारूपी अनल की शिखा [ज्योति] ने जिनके अंतःकरण को नहीं चुंबन किया अर्थात् नहीं जलाया उन वृक्षों का जीवन श्रेष्ठ है (पादपान्योक्ति से कवि यह जताता है कि कार्यार्थ दूसरे पुरुषों के आने से जो दुखी नहीं होते अर्थात् प्रसन्नता पूर्वक उनकी इच्छा शक्त्यनुसार पूर्ण करने को तत्पर रहते हैं वेही धन्य हैं। इससे यह भी ध्वनित होता है कि कोई आत्मनिंदा करता है और कहता है कि दूसरों को पत्र, फल, पुष्प देने में