का प्रयत्न करते हैं वे माया पाश में दृढ़तर बद्ध होते जाते हैं। यह श्लोक वेदांत प्रतिपादक है; सारांश यह कि जगजाल को त्याग भगवत् शरण जानेही में सार्थकता है)
धूमायिता दश दिशो दलितारविन्दा देहं दहन्ति दहना इव गन्धवाहाः।
त्वामन्तरेण मृदुताम्रदलाम्रमञ्जुगुञ्जन्मधुव्रत मधो किल कोकिलस्य॥१०॥
मृदुल और अरुण रंगके पौँसे युक्त आम्र वृक्षों मंजु गुंजार करते हैं मधुप जिस (ऋतु) में ऐसे हे मधु [ऋतुराज] तेरे बिना कोकिल, को, प्रफुल्लित कमलोंसे परिपूर्ण दशौ दिशा धूमित अर्थात् धूमसे परिप्लुत (सी दिखाई देती) हैं और सौरभ को वहानेवाला यह पवन अग्निके तुल्य उसकी देह को दहन करता है (आश्रय वस्तुके वियोग से जीवों को सकल पदार्थ दुखद हो जाते हैं यह भाव)
भिन्ना महागिरिशिलाः करजाग्रजाग्रदुद्दामशौर्य्यनिकरैः करटिभ्रमेण।
दैवे पराचि करिणामरिणा तथापि कुत्रापि नापि खलु हा पिशितस्य लेशः१०८
करिवरशत्रुं सिंहनें बड़े बड़े पर्वतों की शिलाओं को हस्ती समुझ अपने नखों के प्रबलप्रतापसमूह से विदारण किया; परंतु कष्ट की बात है कि दैव विपरीत होने से तौभी कहीं उसे मांसका लेश न मिला! (शिला में मांस का मिलना कैसे संभव हो सकता है। तात्पर्य यह कि, ईश्वर के अनुकूल