पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/८२

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[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।


मनुष्यों की मित्रता ब्रह्मदेव की सृष्टि में कभी नहीं देखी गई अर्थात् इन सब बातों का होना असंभव है (यह भी अर्थ इसमें भासित होता है कि कुटिलों की मित्रता संपादन करना कैसे संभव नहीं जैसे मृत अनुष्य का पुनरूज्जीवन रूपण का दान इत्यादि। अनेक पदों का निर्वाह एक क्रिया से करने से इस श्लोक में 'दीपक' अलंकार हुआ)

उत्तमानामपि स्त्रीणां विश्वाप्तो नैव विद्यते॥
राजप्रियाः कैरविण्यो रमंते मधुपैः सह॥१२६॥

उत्तम स्त्रियों का भी विश्वास न करना चाहिए; (देखिए) चन्द्रमा की परमप्रिय कुमोदिनी [चन्द्रविकाशी कमलिनी] भ्रमरों के साथ विहार करती हैं;! (स्त्रियों मे विश्वास न करने के अर्थ को कुमोदिनी के उदाहरण से समर्थन किया इससे 'काव्यलिंग' अलंकार हुआ)

अयाचितः सुखं दत्ते याचितश्च न यच्छति॥
सर्व्वस्वं चापि हरते विधिरुच्छृंखलो नृणाम्[१]॥१२७॥

मनुष्यों की स्वतंत्र (अर्थात् जो चित्त में आवै वही करनेवाली) भाग्य, जिन्है न चाहिए उन्हें सुख देती है. जिन्है चाहिए उन्हैं नहीं देती (और मन में आने से जिसका चाहती है उसका) सर्वस्व तक हरण करती है! (तात्पर्य यह कि 'विधिगति अति बलवान')

दोर्द्दण्डद्वयकुण्डलीकृतलसत्कोदण्डचण्डांशुग-


  1. 'विधि' शब्द से ब्रह्मका भी अर्थ होता है।