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पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास.djvu/१६२

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पहाड़ की ओर भागा। अन्त को गले में पगड़ी डाले अभय प्रार्थना करने के लिये राज-सभा में उपस्थित हुआ। अकबर को उसके जन्म भर की स्वामि-भक्ति और नौकरी का ध्यान था। अपने हाथों से उसे उठाया और राज-सभा के सब सभासदों से ऊपर बिठाकर पूछा कि क्या तुम किसी प्रान्त की सूबेदारी पसंद करते हो अथवा राज-सभा में किसी ऊंचे पद पर नियत होना चाहते हो? जो हज करने का बिचार हो तो अच्छा वेतन नियत कर दिया जाय और साथ जानेवालों का प्रबंध किया जाय। बैरम खां ने मक्के जाना पसन्द किया परन्तु राह में एक अफ़ग़ान ने जिसके बाप को उसने कुछ बरस पहिले मार डाला था उसको परलोक पहुंचा दिया।

५—अब अकबर स्वतन्त्र हो गया; जो चाहता कर सकता था। बाल्यावस्था में काबुल में रहने के कारण वह हृष्ट पुष्ट हो गया था। वह बुद्धिमान था और बहुत सोच बिचार कर काम करता था। उसने देखा कि जब तक हिन्दुओं को राज-भक्त न बनाऊंगा मेरा राज दृढ़ न होगा, और जी में ठान ली कि जातिपांत के भेद को दूर करके कुल भारतवासियों को अपना बनाना है। परन्तु इस बिचार के पूरा होने से पहिले इस बात की आवश्यकता थी कि अपने सूबेदारों को आधीन करके दिल्ली के राज को पुष्ट कर ले।

६—बैरम खां के छूटते ही तीन सूबेदारों के जी में यह बात समाई कि अकबर केवल अठारह बरस का बालक है। उसको जीत लेना सहज है। ऐसा बिचार कर तीनों अपने अपने प्रान्तों के पूरे अख़तियार के मालिक बन बैठे। इनमें से एक जिसका नाम खानज़मा था जौनपूर का सूबेदार था, दूसरा आदम खां मालवे का, और तीसरा आसफ़ खां कड़े का हाकिम था। परन्तु अकबर ने दिखा दिया कि उसकी अवस्था तो कम थी पर उसमें युद्ध