पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/१५३

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वौद्ध और जैन धम्माका आरम्भ १२३ बंधा रहता है। निर्वाण-प्राप्तिके पश्चात् प्रत्येक व्यक्ति “बुद्ध' हो जाता है और उनकी पदवी सबसे उच्च हो जाती है। जाति-पांतिका भेद वुद्ध जाति-पांतिके भेदको स्वीकार न करते थे । यद्यपि थोड़े समयके पश्चात् यौद्ध लोगों में भी भिन्न भिन्न दल हो गये, तथापि यह बात स्पष्ट कि यह दल-बन्दी उनकी शिक्षाके विरुद्ध थी। चैदिक यज्ञ और कर्मकाण्डकी पद्धतिका भी वुद्धने परित्याग कर दिया, क्योंकि उनकी सम्मतिमें न केवल व्यर्थ ही थे वरन स्पष्ट रूपसे हानिकारक थे। बुद्धको अनुष्ठानों और बलिदानले अतीव घृणा थी। अतएव उन्होंने इस विषयमें सारी पुरातन रीतिको यदलकर एक प्रकारकी समताका धर्म फैलाया। उनके जीवनमें सौर उनके जीवन के पश्चात् बहुत कालतक उनके धर्म- को नीच उनके शुद्ध, पवित्र और सच्चे जीवनपर थी। उनके मरते ही उनके धर्म में वही घुराइयां घुस गई जिनको उखाड़ने- के लिये उन्होंने इस धर्मकी नींव रक्पी थी। परन्तु इस पातको भूल न जाना चाहिये कि युद्धने किसी नवोन धर्म के प्रक- र्तनकी प्रतिज्ञा नहीं की। यह पही कहते रहे कि मैं प्राचीन आर्य-मर्यादाकी शिक्षा देता हूं। उसने बहुतसे लोगों को भिक्ष बनाया अर्थात् उनको यह प्रेरणा की कि वह साधारण, गृहस्थ- का जीवन छोड़कर साधु हो जायँ और अपने जीवनको साधनों- में डालकर धर्म-प्रचार करें। आय्या के इतिहासमें यह पहला उद्योग था कि गृहस्थोंको इस प्रकार नियम-पूर्वक संसार-त्यागीः . चनाकर उनका एक पृयक विभाग बनाया गया। महात्मा बुद्ध.. के पूर्व ऐसे ऋषि, महर्षि, ग्रहाचारी और कदाचित् संन्यासी भी थे जो यत्तीसे अलग वनों में रहते थे, वहीं पढ़ते थे, शिक्षा देते थे, तपस्या करते थे, विचार करते थे और योग करते थे, परन्तु - .