मौर्यवंसम्राट चन्द्रगुप्त और उनकी सदा मरम्मत होती रहती थी। प्रत्येक साथ फोसके अन्तरपर एक पत्थर लगा हुआ था जिसपर दूरी लिनी रहती थी। चन्द्रगुप्तने अपनी राजधानीसे उत्तर-पश्चिमी सीमातक एक राजमार्ग बनवाया । उसका मन्त्री चाणस भारतके माननीय विद्वानोंमें गिना जाता है। उसकी रची हुई पुस्तकोंमेंसे एक अर्थशास्त्र मिलता है । वह राजनीतिका एक बहुमूल्य ग्रन्थ है। इसे कौटिल्यका अर्थशास्त्र कहा जाता है । इस पुस्तकमें शासनके जो नियम और रीतियां बताई गई है उनका वर्णन एक अलग परिच्छेदमें किया जायगा। कुछ इतिहास लेखकोंका विचार है कि चन्द्रगुप्तने जेत-धर्म ग्रहण कर लिया था। और वह राजसिंहासन छोड़कर साधु हो गया और अन्तको शनैः शनैः उपवासोंकी घोर तपस्यासे उसका प्राणान्त हो गया। यह कथा जैन-धर्मकी पुस्तकोंमें आती है। विसेंट स्मिथ पहले इसकी सत्यताको स्वीकार न करता था परन्तु अब वह इसे सत्य मानता है। हमारी सम्मति- में यद्यपि यह गहु त सम्भव है कि चन्द्रगुप्तने अन्तिम मायुमें जैन- धर्मकी ओर रुचि प्रकट की हो, परन्तु यह कदापि सम्भव नहीं कि वह राजगद्दी छोड़कर साधु हो गया हो। चन्द्रगुप्त आयुपर्यन्त शिकार खेलता मांस खाता और निर्दयतापूर्वक दण्ड देता रहा। ये सब यात जैन-धर्मके सिद्धा- न्तोंके सर्वथा विपरीत है । यदि इन सबसे घृणा हो जानेके कारण वह अन्तिम दिनोंमें साधु हो गया होता तो हिन्दू-साहित्य, उसका अवश्य उल्लेख मिलता और उसके पुत्र विन्दुसारकी राजसभामें जो विदेर्शा दूत थे वे अवश्य अपने लेखॉमें इसका प्रमाण देते। . "
पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/१८३
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