पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/१९३

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कौटिल्यका अर्थशास्त्र रल, रुधिका - विभाग। यध्यक्ष और फारखानोंका अध्यक्ष इत्यादि सय थे। इन कर्मचारियोंके चेतन भी इस पुस्तकमें लिखे हुए है। विंसेंट स्मिथके कथनानुसार, पड़ेसे बड़ा वेतन जो युवराज और अन्य मन्त्रियोंको दिया जाता था, छचीस सहस्र रुपया पार्पिफसे अधिक न था। (उस समयको मुद्रामें यह चेतन चांदीके अड़तालीस सहस्र पण था और विंसेंट स्मिथकी सम्मतिमें एक पण एक शिलिङ्ग अर्थात् घारह आनेके परावर समझना चाहिये)। परन्तु चेतनोंके अधिफ या थोड़ा होनेका अनुमान आवश्यक पदार्योंके मूल्यपर होता है, और यह मालूम नहीं कि चन्द्रगुप्तके समयमें जीवनके आवश्यक पदार्थोंका मूल्य क्या क्या था। अर्थ-शास्त्रमें राजस्व विभागके प्रयन्धपर राजस्त्र और कर- यहुत बल दिया गया है। उसमें राजस्व और करोंके वसूल फरने और खों का सविस्तार वर्णन है। विंसेएट स्मिथ लिखता है कि चन्द्रगुप्त उपजका चौथा भाग लेता था और सिंचाईके कर और ऐश्वर्य की अव- स्थामें .२ से. तक वसूल करता था। हेवलकी सम्मतिमें राजस्व आयफा .१६ भाग था। इसके अतिरिक खानोंका किराया वसूल होता था। पशुओं, मोतियों और नमकपर भी फर था । सरकारी जहाजोंका किराया था। सौदागरीपर चुङ्गोका महसूल था। मदिरा और टेक्स था। अनुज्ञापत्र (पासपोर्ट) को फीस भी ली जाती थी। कौटिल्यने यह भी लिखा है कि राजा आवश्यकताके समय धनाढ्य लोगोंपर विशेष कर भी लगाता था। उपाधि आदि देनेके लिये भी भारो भारी रकमें प्राप्त करता था। यह प्रथा इस समय भी यूरोपीय देशोंमें और भारतमें प्रचलित है। हेवल लिखता है कि कुछ वस्तुओंपर कोई कर न था, जैसा कि शस्त्रों- , धूत गृहोपर