हिन्दुओंकी राजनीतिक पद्धति ३५६ यत करते हैं। कुछ शान्तिप्रिय प्रकृतियाँ या वे लोग जिनको राज्यकी वर्तमान व्यवस्थासे लाभ पहुंचता हो इस प्रकारके सुधारकोंको एजीटेटर कहकर लोगोंकी दृष्टिमें गिरानेका यत्न करते हैं। आश्चर्यका विषय है कि जहां एक ओर गवर्नमेंट और गवर्नमेंटके सहायक राजनीतिक काम करनेवालोंको एजीटेटर कहकर कलङ्कित करनेका यत्न करते हैं वहां उसोके साथ हिन्दु. ओपर यह भी दोप लगाते हैं कि उनके अन्दर यथेष्ट राजनीतिक बुद्धि नहीं है, वरन् वे यहांतक कहते हैं कि यह पहले भी कभी न थी। कहा जाता है कि हिन्दू इस वातकी कुछ परवाह नहीं फरते कि उनपर कौन राज्य करे। वे केवल यह चाहते है कि उनको शान्तिसे रहने दिया जाय और शान्तिले अपना निर्वाह करने दिया जाय । यहांतक कि स्वराज्यके अधिकारके खण्डनमें यह युक्ति दी जाती है और कहा जाता है कि भारतीय सामान्य रूपसे और हिन्दू विशेषरूपसे इस कारण सराज्यके अयोग्य हैं कि उनके अन्दर न राजनीतिक बुद्धि है और न राजनीतिक योग्यता है। वास्तव में ये दोनों कथन मिथ्या है। इतना ठीक है कि फुछ फालसे भारतीयोंकी राजनीतिक पुद्धि दुर्वल हो गई है। परन्तु यह अवस्था प्रत्येक जातिकी हो जाती है जो चिरकाल तक राजनीतिक दासत्वमें रहे । भारतमें दो यढ़े धार्मिक समाज, अर्थात् हिन्दू और मुसल- मान, बसते हैं। इन दोनों जन समुदायोंके प्राचीन इतिहास और सभ्यताके समयमें इन दोनों राजनीतिक चेतन्य पर्याप्त रूपसे मौजूद था, और ये लोग राजनीतिकी विद्याको अत्युध स्थान देते थे। मुसलमानोंके राजनीति-शास्त्र और राजनीतिक विचारोंके विषय में हम इस समय कुछ नहीं लिखेंगे। इनका वर्णन उस ग्रन्थपएडमें होगा जिसमें मुसलमानोंके राज्यका .
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