( १५ ) कांने यह काय आरम्म किया है। परंतु जब हम उनके कामको यूरोपीय विद्वानोंके कामसे तुलना करते हैं तो अभी तक वह हमको बहुत कुछ अधूरा, अपर्याप्त और अपूर्ण दिखाई देता है। आजकल हमारे स्कूलोंमें इतिहासकी जो पुस्तकें पढ़ाई जाती है वे न केवल अपूर्ण हैं परन् भ्रमात्मक और भटका देनेवाली हैं। इसी अभावकी पूर्तिके लिये मैंने इस पुस्तकका पहला संस्करण सन् १८६८ ई०में प्रकाशित किया था। उसके पश्चात् मुझे इस छोटी सी संक्षिप्त पुस्तिकाके संशोधनका अवकाश नही मिला। जीवनकी दौड़-धूप और सार्वजनिक कार्यों में लगा रहनेके कारण मुमेन अध्ययनके लिये और न लिखने के लिये अवकाश मिल सका । अब जव कि असहयोग आन्दोलनने राष्ट्रीय शिक्षाके प्रश्नको एक नूतन रूप दिया तो मुझे भी उत्सुकता हुई कि मैं इस विषयपर एक अवतक परिशोधित पुस्तक लिपू, जो नवयु- वकोंके मनमें हिन्दू-इतिहासके मूल स्रोतोंको ओर बढनेको रुचि उत्पत्ल करे,ताकि वे उस अथाह सरोवरसे अपनी तृपाको शान्त कर सकें। इस पुस्तकके प्रणयनके संबंध में किसी मौलिक अन्येपण या खोजकी प्रतिज्ञा नहीं करता। यह पुस्तक मेरे द्वारा रचित नहीं, संकलित मात्र है, यद्यपि इतिहासकी पुस्तकें पहुधा संक- लित ही हुआ करती हैं। गत वीस वर्षको अवधिमें हिन्दू-इत्ति- हासके भिन्न भिन्न अंगोंपर जो पुस्तकें लिखी गई हैं उनकी एक संक्षिप्त नामावली इस पुस्तकके अन्तमें लिख दी गई है ताकि जो लोग अधिक अन्वेषण करना चाहे वे कर सकें। यह भी स्मरण रहे कि यह पुस्तक लाहौर सेंट्रल जेल में मेरे कारावासके पहले दोभासमें क्रमबद्ध की गई। लगभग सारीकी सारी दिसम्बर और जनवरी में लिखी गई। विषयपर मेरा पहलेसे
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