ही फिसी कदर अधिकार था। केवल स्मृतिको ताज़ा करना था। मैने जेलमें जाते ही इस कामको आरम्भ कर दिया। डाफर गोपीचन्द्र भार्गव, म्यूनिसिपल कमिश्नर लाहौरने जो मेरे साथ इस कालमें उस बंदीगृहमें कैद थे मुझे लिखने में सहायता दी। मैं लिखाता गया, और वे लिखते गये। यहां तक कि उनके छुट- कारे तक पुस्तक लगभग संपूर्ण हो गई। वे चले गये और मैं रह गया। उनके चले जाने पर मैंने इसका संशोधन किया। यह स्पष्ट है कि चंदीगृहमें मुझे प्रमाणोंके लिये पर्याप्त पुस्तकें नहीं मिल सकीं, क्योंकि वहां पुस्तकों की इतनी विपुल राशिको एकत्र करना कठिन था। फिर भी मैं कह सकता हूं कि इस समय आङ्गल भापामें इस विषयपर जितनी भी प्रामाणिक पुस्तके छप चुकी है उनमेंसे यदि सयको नहीं तो बहुतको मैंने अवश्य पढ़ा है । हेवल और विसेंट स्मिथका उल्लेख तो ऊपर हो चुका है। जिन पुस्तकोंका उल्लेख प्रथम संस्करणको भूमिकामें हुआ है उनका उल्लेख दुवारा फरना व्यर्थ है। हिन्दुओंकी राज- नीतिक पद्धतिपर जो साहित्य अवतक निकल चुका है उसमें सबसे आदरणीय डाकृर प्रमथ नाथ बंद्योपाध्यायकी पुस्तक है । परंतु इस विषयपर डाफर नरेन्द्रनाथ टा, यावू राधाकुमुद मुखोपाध्याय डाफर रमेशचन्द्र मोज़मदार, यावू काशीप्रसाद जायसवाल, वायू विनयकुमार सरकार और डायर भण्डार- करको पुस्तकोंसे भी सहायता ली गई है। जय मैंने पुस्तक लिखना आरम्भ किया तो मेरा विचार इतना लिखनेका न था! परन्तु जब मैं लिख चुका तय मुझे अनुभव होने लगा कि जो कुछ मैंने लिखा है यह अपर्याप्त है। इस विषयके यहुतसे अंग छूट गये है। जी चाहता था कि हिन्दुओंकी वैज्ञानिक उन्नतिपर अधिक विस्तारके साथ लिखा 1 -
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