४१६ भारतवर्पका इतिहास 1 1 कोई भारतीय स्वीकार नहीं कर सकता और जिनसे साम्राज्य. सम्बन्धी स्वार्थों की झलक आती है। उदाहरणार्थ पहले ही वाफ्नमें कहा गया है कि भारतका साम्राज्य भिन्न भिन्न प्रकार- के लोगोंका एक विस्तृत संग्रह है। ये लोग आपसमें एक दूसरे- से प्राकृतिक विशेषताओंमें, भाषाओं में और संस्कृनिमें उससे अधिक भिन्न हैं जितने कि यूरोपके भिन्न भिन्न देशोंके अधिवासी आपसमें एक दूसरेसे हैं।" वंश-भेदके सम्बन्धमे बताया गया है कि भारतम मनुष्यके तीनों शोंके प्रतिनिधि मौजूद हैं अर्थात् पहले आर्य, दूलर मङ्गोले और तीसरेहब्शी (इथियोपियन ) । प्रथमोक्त दो ठेठ भारतमें और शेपोक्त अण्डमान द्वीप-समूहम पाये जाते हैं। परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि प्रथमोकं दोनों चंशोंके लोग यूरोपमें भी हैं और जितना मिलावट दक्षिण भारत- के तीसरे प्रकारके फुछ अधिवासियोंमें पाई जाती है लगभग उतनी ही दक्षिणी यूरोपके अधिवासियोंमें भी मौजूद है । भाषाओंके विपयमें लिखा है कि "सन् १९११ की मनुप्य. गणनामें २२० जीवित भापायें लिखी गई हैं। जिन सिद्धान्तों. पर भारतको भिन्न भिन्न भाषाओंको वाँटा गया है यदि उन्हीं सिद्धान्तोंपर यूरोपकी भाषाओंको बांटा जाय तो कदाचित् यूरोपीय भाषाओंकी संख्या भी सैकड़ोंसे बढ़ जावे । संसारकी मापामोंको पांच भिन्न भिन्न शाखाओं में बांटा गया है, अर्थात् (१) "आष्ट्रिक" (२) "तिब्बती और चीनी” (३) “द्रविड़" (8) "इण्डो यूरोपीय" (५) “सेमेटिक” । यह माना गया है कि (१), (२) और (४) संसारमें बहुत विस्तारके साथ फैली हुई है, परन्तु (३) का अस्तित्व भारतसे चाहर नहीं पाया गया : यूरोपमें सिबाय (8) के शेष सब भाषायें पाई जाती हैं । इनांनी भाषा इसी शाखासे है और यूरोपमें यदि
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