भारतवषका इतिहास 1 जातियोंका भेद यह भी स्मरण रहना चाहिये कि भिन्न करनेकी विद्या । भिन्न मानवी दलोंको भिन्न भिन्न जातियों या वंशोंमें विभक करनेकी विद्या अभी अपने वाल्यकालमें ही है। उसके सिद्धान्त अभी तक किसी स्थायी आधारपर प्रतिष्ठित नहीं हुए और बहुत अंशोंमें काल्पनिक हैं। इस विद्याका सहारा लेकर वंश-भेद और जातीय श्रेष्ठता तथा उच्चताकी बहुतसी निस्सार और निरर्थक प्रतिज्ञायें की जाती हैं। इन प्रतिज्ञाओंकी नींव बिलकुल कच्ची है। आर्थर जेम्स टाड नामके एक अमरीकन अध्यापकने अपनी "थियोरीज़ आव सोशल प्रोग्रेस” ( १९१६ ई०) नामक पुस्तकके १८ ये परिच्छेदमें इस विषयपर बड़ी ही योग्यतासे विचार किया है। भारतीयों के पारस्परिक सम्बन्धोंका निर्भर वंश-भेदपर नहीं है और वंश-भेदपर भारतको जनताके किसी भागका दूसरे भारतीयोंकी तुलनामें श्रेष्ठता या उच्चताकी प्रतिज्ञा करना न केवल मिथ्या घरन् अत्यन्त हानिकारक है । जो यूरोपीय ऐतिहासिक भारतका इति. हास लिखते या भारतीय सभ्यतापर विवाद करते समय इन घंश-भेदोंपर बल देते हैं वे भारतीय राष्ट्रीयताके भावको दुर्बल करते हैं। हम उनपर कुसंकल्पका दोप नहीं लगाते। परन्तु हम भारतीय नवयुवकोंको इस मिथ्या विवादकी सर्वथा उपेक्षा करनेका परामर्श देते हैं। यह विवाद न केवल व्यर्थ घरम् घोर हानिकारक है । इसलिये भारतीय इतिहासोंमें इसपर अधिक जोर देनेकी आवश्यकता नहीं। भारत साहित्य- पृष्ठ ५८ पर अध्यापक रपसनकी आगे माण्डारका स्थान | लिखी सम्मति विचारणीय है:- "ग्राह्मण, यौद्ध और जैन साधुओंने जो साहित्य-भाण्डार छोड़े है उनमें स्वभावतः ही धार्मिक विश्वासोंपर विचार किया
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