पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/४६३

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४२० मारतवर्षका इतिहास 1 कुछ सहायता इतिहासमें मिलती है उसका वर्णन करते हुए अध्यापक रपसन लिखते है:- "ये शिला-लेख जहां एक ओर एक सैनिक वर्ण (अर्थात् क्षत्रियों) को कभी विश्राम न लेने वाली चेष्टाके प्रमाण हैं यहां दूसरी ओर उनसे यह मालूम होता है कि भारतीय संस्थायें ऐसी गुढ़ नींवोंपर प्रतिष्ठित थीं कि सैनिक विजयोंसे उनमें कुछ भी अन्तर न याता था । भिन्न भिन्न विजेता एक दूसरेके पश्चात् आये, परन्तु भिन्न भिन्न राज्योंके प्रयन्यमें कोई परिवर्तन न हुआ। शासन प्रायः उसी राजा या उसी घंशके किसी दूसरे स्तम्भके हाथमें रहा और नि भिन्न मठों ( तथा अन्य धार्मिक संस्थाओं) के अधिकार (चार्टर ) यथापूर्व नये सिरेसे दिये जाते रहे। जहाँतक विजयों का सम्बन्ध है, यह कथन सत्य है। भारतमें यहुतसे राजनीतिक परिवर्तन आये ; फुछ याह्य आक्रमणों के कारण और कुछ भीतरी कारणोंसे। परन्तु सामान्यतः देशके राजनीतिक मोर नागरिक जीवनपर उनका बहुत स्पष्ट प्रभावन हुआ। प्राचीन हिन्दू इस सिद्धान्तपर पके थे किचे प्रायः जिस देशको विजय गारते थे उसकी शासन-पद्धतिमें कुछ भी परिव- तन न करते थे और वहाँके लोगोंकी स्वतन्त्रतामें वाधा न देते 'थे । राज्यकी परम्परा वही रहती थी। यहां तक कि वे पर लेनेपर भी आग्रह न करते थे। फेवल उससे अपनी अधीनता स्वीकार करा लेते थे। लोगोंका नागरिक जीवन और रहन- संहनका ढंग पूर्ववत् बना रहता था। किसानोंको कोई कुछ न कहता था। फसलोंको लूटने या नष्ट करनेका घोर निषेध था। प्रजाके जीवामें हस्तक्षेप करना पाप था। आजकलकी तरह शत्रुकी प्रजाके भोजन तथा जलका चन्द फरना, उसपर परब .