पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास भाग 1.djvu/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 वैदिक धर्म &o करे, जैसा कि मित्रोंका मित्र भागेसे और मध्यसे प्रदान करता है। ऋग्वेदके दसवें मण्डलका १२६ घां सूक्त सृष्टिको उत्पत्ति- के विषयमें उच्चकोटिके तत्वज्ञानसे भग मुमा है। उदाहर- णार्थ दो मन्त्र नीचे दिये जाते हैं :- नासदासीन्तो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परोयत् । किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥१॥ २.इयं चिसृष्टिर्यत आवभूव यदि वा दधे यदि पान। यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥ अर्थ-१ उस समय न असत् (जगत) था, न सत् (प्रकृति), न पृथ्वी थी न आकाश। कोई वस्तु इनको आच्छादित करनेवाली भी न थी। क्या और किसके लिये कुछ होता? यह गहरा समुद्र भी उस समय कहां था ? २ यह एष्टि जिससे उत्पन्न हुई है वही एक इसे धारण करनेवाला है। जो इस विस्तृत माफाशमें व्यापक और उसे धारण करता है वही इसके विपयमें जान सकता है। एक और मन्त्र भी नकल किया जाता है। इसमें सर्य सृष्टिको मित्रकी दृष्टिसे देखनेका उपदेश है :- हते ह ह मा मित्रस्य मा चक्षुपा सर्वाणि भूतानि समीक्ष- न्ताम् । मित्रस्याहं चक्षुपा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।। यजुर्वेद ३६ ॥ १८ ॥ अर्थ-मेरे टूटे फूटे काममें मुझे दृढ़ करो । सब प्राणी मुझे मित्र- की दृष्टिले देखें। मैं सब प्राणियोंको मित्रकी दृष्टिसे देखू । सब एक दूसरेको मित्र दृष्टिसे देखें। संगच्छध्वं संबदध्वं संबोमनासिजानताम् । देवाभागंपया पूर्व संजानाना उपासते.॥ २ ॥ ,