पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास 2.pdf/५६

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'४६ भारतवर्ष का इतिहास साथ दोगे या नहीं। दोनों ने बड़े आदर से स्वीकार किया। टीपू से कहलाया गया कि तुम द्रावनकोर से निकल जाओ। उसने न माना और लड़ाई की घोषणा दी गई। यह तोसरी लड़ाई थी जो अंगरेजों को मैसूर के साथ लड़नी पड़ी। ४-टपू सुलतान कारनाटिक उजाड़ने लगा जैसा कि दस बरस पहिले हैदर अली ने किया था। लार्ड कार्नवालिस कलकत्ते से चल कर मदरास आया कि आप सेना की कमान करे। वह मैसूर के देश में जा घुसा और बङ्गलोर ले लिया। निजाम और मरहठों ने जो सेना भेजी थी किमी काम को न थी और लड़ाई में धावे पर न गई और देश लूटने में लगो रहो। लड़ाई को कठिनाई सब अंगरेजों को झेलने पड़े। ५-लार्ड कार्नवालिस ने बङ्ग लोर के आस पास के कई और टीपू सुलतान किले ले लिये और फिर धीरे धीरे कूच करता हुआ श्रीरंगपत्तन पहुंचा; टपूकी सेना को परास्त कर के शहर में भगा दिया और किले के कोट पर गोला बरसाने लगा। टापू ने देखा कि किला जल्द हाथ से जाता रहेगा, इस लिये वह सन्धि करने पर तैयार हो गया और कहने लगा कि अंगरेज़ लोग जो शते करें वही मुझे भी स्वीकार है। ६-अव श्रोरंगपत्तन के स्थान पर अंगरेड़ उनके दोनों साथी और टोपू सुलतान में सन्धि हुई। टीपू को अपना आधा राज और दुख