प्राचीनलिपिमाला. लकीर के दोनों पार्श्व में लगनेवाली बिदियों को उक्त लकीर के परिवर्तित रूप के ऊपर लगा कर, बनाया है और उसीसे वर्तमान शारदा का 'ई' बना है. 'ते' और 'थै' में 'ए' और 'ऐ की मालाएं क्रमशः एक और दो बाड़ी लकीरें व्यंजन के ऊपर लगा कर बनाई हैं. टाकरी लिपि में 'ए' और 'ऐ' की मात्राएं अब तक ऐसी ही लगाई जाती है ( देवो लिपिपत्र ७७) लिपिपत्र ३० वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- त्रों नमरिशवाय ॥ जयति भुवनकारणं स्वयंभूजयति पुर- न्दग्नन्दनो सुरारिः [0] जयति गिरिसुतानिरुद्धदेहो "रितभयाप- हरो हाश्च देवः ॥ श्रौषपाम्प)कावासकात्परमब्रह्मण्यो लला. टसटघटितविकटभृकुटिम कटकुटि(हि)तकट कसौटिकटतसाना- लिपिपत्र ३१ यां . यह लिपिपत्र कुलू के राजा बहादुरसिंह के दानपत्र', अथर्ववेद (पिप्पलादशाग्वा ) और शाकु- न्तल नाटक की हस्तलिम्वित पुस्तकों मे नय्यार किया गया है अथर्ववेद की पुस्तक के अक्षरों का 'इ प्राचीन है के इस रूप को नीचे के अंश मे प्रारंभ कर चलनी कलम से पूरा लिग्वने में ही ऐसा बना है. उसीमे वर्तमान शारदा का 'इ यना है. शाकुंतल नाटक से उदृत किये हुए अक्षरों में मे अधिकतर अर्थात् अ, आ, ई, ऊ, ऋ, ओ, औ, क, ग्व, घ, च, छ, झ, ञ, ड, ढ, ण, न, थ, द, ध, न, प, फ, ब, म, य, र, श, ष, म और ह अक्षर वर्तमान कश्मीरी से मिलने जुलने ही हैं ( उक अक्षरों को लिपिपत्र ७० में दी हुई वर्तमान शारदालिपि मे मिला कर दंग्वो ) लिपिपत्र : १ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- ओं स्वस्ति । गमगमगमपराक्रमपराकमणदाना- कांतनितांतचरणशरणकृतांतःकरणरणविशारदशारदहि- मकगनुकारियशःपूरपूरितदिगंतरपरमभहार कमहागजाधिरा- जवीबहादरसिंहदेवपादाः ॥ ॥ महाश्रीयुवराजप्रतापसिं- हः महामंपिवर नारायणसिंहः ॥ श्रीचंपकपुरस्थमहापं. क । ये मूल पंक्तियां राजा सोमवर्मा के कुलैन के दामपत्र से है श्रा सरि ई. स. १९०३-४, प्लेट ७१ से . हाई प्रोग्विंटल सिरीज में छपे हुए अथर्ववेद के अंग्रजी अनुवाद के साथ दी हुई उक्त पुस्तक के एक पत्र की प्रतिकृति स. । पे, मेट ६, प्राचीन अक्षरों की पति से • ये मूल पंक्तियां कूल के राजा बहादुरसिंह के दान पत्र से है
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