पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१५८

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प्राचीनलिपिमाला. जुलते हैं. बाकी के अक्षरों में जो अंतर है वह विशेष कर स्वरा से तथा चलती कलम से पूरा भक्षर लिखने से ही हुआ है 'ख' के स्थान में 'ष' लिखा जाता है. जंम् तथा पंजाब के सारे उत्तरी पहाड़ी प्रदेश में (शायद शिमला जिले को छोड़कर) इसका प्रचार हे और यह भिन्न भिन्न विभागों में कुछ कुछ भिन्नता से लिखी जाती है. जो जमू के इलाके में प्रचलित है उसको 'डोगरी और जो चंया राज्य में लिग्वी जाती है उसको 'चमिमाली कहते हैं. जब महाजन आदि मामूली पड़े हुए लोग, जिनको स्वरों की मात्रा तथा उनके स्व दीर्घ का ज्ञान नहीं होता, इसको लिखते हैं तब कभी कभी स्वरों की मात्राएं या तो नहीं लगाई जाती या उनके स्थान पर मूल स्वर भी लिख दिये जाते हैं. इसीसे राकरी का पढ़ना बाहरवालों के लिये बहुत कठिन होता है और जो शिला- लेख इस ममय उसमें खोदे जाते हैं उनका पढ़ना भी बहुधा कठिन होता है. 'टाकरी' नाम की उत्पत्ति का ठीक पता नहीं चलता परंतु संभव है कि 'ठाकुरी ( ठक्कुरी) शन्द से उसकी उत्पत्ति हो अर्थात् राजपूत ठाकुरों (ठक्करों) की लिपि; अथवा टांक (लयाणा) जाति के ब्यौपा- रियों की लिपि होने के कारण इसका नाम टाकरी हुमा हो. गुरमुग्वी लिपि-पंजाब के महाजनों तथा अन्य मामूली पड़े हुए लोगों में पहिले एक प्रकार की लंडा नाम की महाजनी लिपि प्रचलित थी, जिसमें सिंधी की नाई स्वरों की मात्राएं लगाई नहीं जाती थीं और जो अब तक वहां पर कुछ कुछ प्रचलित है ऐसा कहते हैं कि सिक्वों के धर्मग्रंथ पहिले उसी लिपि में लिखे जाने थे जिससे वे शुद्ध पड़े नहीं जाते थे, इसलिये गुरु अंगद (ई. स. १५३८-५२) ने अपने धर्मग्रंथों की शुद्धता के लिये स्वरों की मात्रावाली नई लिपि, जिसमें नागरी के समान शुद्ध लिग्वा और पढ़ा जावे, बनाई, जिससे उसको 'गुरमुग्वी अर्थात् 'गुरु के मुग्ध से निकली हुई' लिपि कहते हैं. इसके अधिकतर अक्षर उम ममय की शारदा लिपि मे ही लिये गये हैं क्योंकि उ, ऋ, ओ. घ, च, छ, ट, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, भ, म, य, श, प और म अक्षर अब तक धर्तमान शारदा से मिलते जुलते हैं इसके अंक नागरी से लिये गये हैं. मिस्वों के धर्मग्रंथ इसीमें लिग्वे और छापे जाते हैं इतना ही नहीं किंतु नागरी के साथ साथ इमका प्रचार पंजाब में बढ़ रहा है. लिपिपत्र ७८ बां. इस लिपिपत्र में वर्तमान कैथी, बंगला और मैथिल लिपियां तथा उनके अंक दिये गये हैं. कैथी लिपि-यह लिपि वास्तव में नागरी का किंचित् परिवर्तित रूप ही है कायस्थ (कायथ) अर्थात् अहल्कार लोगों की त्वरा से लिम्वी जानेवाली लिपि होने से इमको 'कैथी' ( कायथी) कहते हैं. जैसे मामूली पड़े हुए लोगों की लिपियों में संस्कृत की पूरी वर्णमाला का उपयोग नहीं होता वैसे ही इसमें भी ऋ, ङ ओर अ अक्षर नहीं है, और व तथा 'ब' में अंतर नहीं है. 'व' को से भिन्न यतलाने के लिये टाइप के अक्षरों में 'व के नीचे एक बिंदी लगाई जाती है. भ, ख और क नागरी से भिन्न हैं जिनमें से 'अ' तो नागरी के 'अ' को चलती कलम से लिखने में ऊपर अंथि बन जाने के कारण 'श्र' सा बन गया है और 'ख' नागरी के 'ष' का विकार मात्र है. पहिले यह लिपि गुजराती की नाई लकीर खींच कर लिखी जाती थी परंतु टाइप में सरलता के विचार से सिरसूचक लकीर मिटा दी गई है. बिहार की पाठशालाओं में नीचे की श्रेणियों में इस लिपी की छपी हुई पुस्तकें पड़ाई जाती हैं. देशभेद के अनुसार इसके मुख्य तीन भेद हैं अर्थात् मिथिला, मगध और भोजपुर की कैथी. फो;एँ चं.स्टे। पृ.५७.