AR प्राचीनलिपिमाला ५-५. दू. ७१ (कुशनवंशियों के लेख); ती दूसरे से बना (बाई भोर की खड़ी लकीर को चलती कलम से दाहिनी ओर बनाने से ). ६ प.७१ ( अशोक के लेख); दू. ७१ (कुशनवंशियों के लेख ). ७--प. ७१ (कुशनवंशियों के लेख): दू. ७१ ( क्षत्रपों के सिके); ती. ७१ ( बलभी के राजाभों के दानपत्र). ८--पदू ७१ (कुशनवंशियों के लेख); ती ७१ ( चत्रपों के सिके); चौ. ७१ (कुशन- बंशियों के लेव); पां. ७१ (गुप्तों के लेग्व ६-प. ७१ (नानाघाट का लेख), इ.७१ ( कुशनवंशियों के लेग्व); ती. ७१ (मांधों के नासिक के लेख ): चौ. ७५ (राष्ट्रकूट दंतिवर्मन् का दानपत्र); पां. चौथे के ऊपर की ग्रंथि को खसटा लिखने से छ.७६ (कलचुरि कर्ण का लेम्ब ). मा. ७६ (चौलुक्य त्रिलोचनपाल का दानपत्र); भा. ७६ ( अजमेर का लेख) के अंक के छठे, सातवें और पाठवें रूपों में विशेष अंतर नहीं है . २४-लेखनसामग्रौ. ताड़पत्र ताड़पत्र--ताह ( ताल, ताली ) नामक वृक्ष की दो भिन्न जातियों के पत्रे हैं. ताड़ के वृक्ष दक्षिण में तथा समुद्रतट के प्रदेशों में विशेष रूप से और राजपूनाना, पंजाब आदि में कम होते हैं. टिकाउ होने तथा थोड़े मूल्य में बहुन मिल आने के कारण प्रारंभिक काल से ही ताड़ के पत्रे पुस्तक आदि लिम्वने के काम में आते थे. ताड़ के पत्रे बहुत बड़े बड़े होते हैं, उन्हें मंधियों में से काट कर, अधिक लंबी परंतु चौड़ाई में एक से चार इंच तक की ही, पहियां निकाली जाती हैं जिनमें से जितनी लंबाई का पत्रा बनाना हो उतना काट लेते हैं पुस्तक लिखने के लिये जो ताड़पत्र काम में आते थे उनको पहिले सुम्बा देते थे, फिर उनको पानी में उबा या भिगो रखते थे. पीछे उनको फिर सुम्बा कर शंम्ब, कौड़े या चिकने पत्थर मादि से घोटते थे. मामूली कामों के लिये जो पत्रे पहिले काम में लाये जाते थे या प्रष लाये जाते हैं वे इस तरह तय्यार नहीं किये जाते. कश्मीर और पंजाब के कुछ अंश को छोड़ कर बहुधा मारे भारतवर्ष में ताड़पत्र का बहुत प्रचार था. पश्चिमी और उत्तरी भारनवाले उनपर स्याही से लिखते थे परंतु दक्षिणवाले । बौयो की जातक कथाओं में 'परण' ( पत्र, पत्ता, पन्ना ) का उल्लेख कई जगह मिलता है (देखो, ऊपर पृ ५, टिप्पण २, ३, ४) जो ताड़पत्र का ही सूचक होना चाहिये हुएम्त्संग के जीवनचरित से, जो उसीके शिष्य पूली का बनाया हमा है, पाया जाता है कि बुद्ध के निर्वाण के वर्ष में बौद्धो का जो पहिला मंघ एकत्र हुमा ( देखो, ऊपर पृ. ४, टि- प्पण ) उसमें बौद्यों का 'त्रिपिटक' नाड़पत्रों पर प्रथम लिखा गया था ( बील अनुवादित हुएत्संग का जीवनचरित, पृ. १६-१७) ऐसा कह सकते है कि भारतवर्ष में लिखने के लिय मयमे पहिले नाइपत्र ही काम में पाया हो और प्रारंभ में सपर दक्षिणी शैली से लोहे की तीखे गोल मुंह की शलाका से अक्षर कुचरना ही प्रतीत होता है क्योंकि 'लिल्' धातु का मूल अर्थ कुचरना, रगड़ना या रेखा करना ही है. स्याही में लिखने के लिये 'लिए' धातु (लीपना, रंग पोतना ) अधिक उपयुक्त है, अत एव संभव है कि ताइपत्रों पर स्याही से लिखने की उनरी प्रथा पीछ की हो. संस्कृत साहित्य के कई शब्द और मुहावरे सबसे प्राचीन पुस्तकों का ताड़पत्र पर ही होना सचित करते हैं, जैसे कि एक विषय का पुस्तक 'ग्रंथ' या 'सूत्र' कहलाना था जो ताड़पत्रों के एक गांठ या एक डोरी से हुए होने का स्मरण दि. जाता है. वृक्ष के पत्रों के संबंध से ही पुस्तक के विषयो का विभाग स्कंध, कांड, शाला सीमादि सदों ने किया गया है। पत्र ( पत्रा) और पर्व ( पचा) शब्द भी वृक्षों के पत्रों के ही स्मारक है.
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