बखनसामग्री. १४० सीखे गोल मुख की शलाका को उनपर दषा कर बदर कुरेदते थे. फिर पत्रों पर कजल फिरा देने से अक्षर काले बन जाते थे. कम लंबाई के पत्रों के मध्य में एक, और अधिक लंबाईवालों के मध्य से कुछ अंतर पर दाहिनी और बाई ओर एक एक, छिद्र किया जाता था. पुस्तकों के नीचे और ऊपर उसी अंदाज़ के सूराखवाली लकड़ी की पाटियां रहती थी. इन सूराखों में डोरी डाली जाने से एक माप की एक या अधिक पुस्तकें एकत्र बंध सकती थीं. पढ़ने के समय मेरी को सीला करने से प्रत्येक पत्रा दोनों ओर से आसानी के साथ उलटाया तथा पढ़ाजा सकता था. सुंदर सस्ते कागजों के प्रचार के माथ ताड़पत्रों का प्रचार कम होता गया और अब तो बंगाल में कोई कोई 'दुर्गा- पाठ लिग्वने में ही उन्हें काम में लेते हैं भारत के सब मे दक्षिणी और दक्षिणपूर्वी हिस्सों की प्रारंभिक पाठशालाओं में विद्यार्थियों के लिग्वने में या रामेश्वर, जगदीश भादि के मंदिरों में जमा कराये हुए रुपयों की रसीदें देने आदि में ताड़पत्र अब भी काम में आते हैं. दक्षिण की अधिक उष्ण हवा में ताड़पत्र के पुस्तक उतने अधिक समय तक रह नहीं सकने जिनने कि नेपाल आदि शीत देशों में रह सकते हैं अप तक मिले हुए स्याही मे लिम्वे ताड़पत्र के पुस्तकों में सब से पुराना एक नाटक का कुछ श्रुटिन अंश है जो ई. म. की दूमरी शताब्दी के आम पास का है। मि मॅकार्टने के काशगर से भेजे हुए नाइपत्रों के टुकड़े ई म. की चौथी शताब्दी के हैं'. जापान के होरियूज़ि के मठ में रकावे हुए 'प्रज्ञापारमिताहृदयसूत्र नथा 'उष्णीषविजयधारणी' नामक बौद्ध पुस्तक , जो मध्य भारत से वहां पहुंचे थे, ई. स की ६ठी शताब्दी के आस पास के लिग्वे हुग हैं नेपाल के ताड़पत्र के पुस्तकसंग्रह में ई. म की ७वीं शताब्दी का लिग्वा हुआ 'स्कंदपुराण , कैंब्रिज के संग्रह में हर्ष संवत् २५२ (ई म =५६ ) का लिम्वा हुआ 'परमेश्वरतंत्र और नेपाल के मंग्रह में नेवार सं २८ ( ई. स. १०६-७) का लिखा हुआ 'लंकावतार' नामक पुस्तक है. ई. स. की ११ वीं शताब्दी और उसके पीछे के तो अनेक नाड़पत्र के पुस्तक गुजरात, राजपूताना, नेपाल आदि के एवं यूरोप के कई पुस्तकसंग्रहों में ग्वम्व हुए हैं दक्षिणी शैली के अर्थात् लोहे की तीक्ष्ण अग्रभागवाली शलाका से दवा कर बनाये हुए अक्षरवाले पुस्तक ई म की १५ वीं शताब्दी से पहिले के अब तक नहीं मिले जिसका कारण दक्षिण की उष्ण हवा में उनका शीघ नष्ट होना ही है भूर्जपत्र । भाजपत्र ). भूर्जपत्र (भोजपत्र) 'भूर्ज' नामक वृक्ष की, जो हिमालय प्रदेश में बहुतायत से होता है, भीतरी छाल है. सुलभता तथा नाममात्र के मूल्य से बहुत मिलने के कारण प्राचीन काल में वह पुस्तक, पत्र प्रादि के लिखने के काम में यहुन आता था. अल्बेमनी लिखता है कि 'मध्य और उत्तरी भारत के लोग 'तूज' (भूर्ज) वृक्ष की छाल पर लिखने हैं. उसको 'भूर्ज' कहते हैं. वे उसके प्रायः एक गज लंबे और एक बालिरत चौड़े पत्रे लेते हैं और उनको भिन्न भिन्न प्रकार से तय्यार करते हैं. उनको मजबूत और चिकना बनाने के लिये वे उनपर तेल लगाते हैं और [घोट कर ] चिकना करते हैं, फिर उनपर लिम्वते हैं।' भूर्जपत्र खंबे चौड़े निकल माते है जिनको काट कर लेग्वक अपनी इच्छानुसार भिन्न भिन्न लंबाई चौड़ाई के पत्रे बनाते और . । देखो, ऊपर पु.२, टिप्पण २. २. ज ए सो बंगा: जि ६६, पृ. २१८. प्लेट ७. संख्या १, टुकड़े ( से i तक). .मों (मार्यन् सीरीज), पोट १-४. के पा, अंग्रजी भूमिका, पृ ५१, और अंत का पोट. ५. हा कॅ पा; अंग्रेजी भूमिका, पृ. ५२. ...पा:पृ. १४०. सा
- जि.९, पृ. १७१.