प्राचीनलिपिमाला. एनपर स्याही से लिखते थे. ताड़पत्रों का अनुकरण कर भूर्जपत्र की पुस्तकों के प्रत्येक पत्रे कामध्य का हिस्सा वाली छोड़ा जा कर उसमें छेद किया जाता था. पुस्तक के ऊपर और नीचे रक्खी जाने- बाली लकड़ी की पारित्रों में भी उसी अंदाज़ से छेद रहता था इस प्रकार सब पत्रों के वेदों में सोरी पोई जाकर पाटियों पर लपेट ली जाती थी. मुगलों के समय से कश्मीरवाले भूर्जपत्र के पुस्तकों पर वर्तमान किताबों की नाई चमड़े की जिन्हें भी बांधने लगे सस्ते और सुंदर कागजों के प्रचार के साथ भूर्जपत्र पर पुस्तकें लिखने की प्रथा कम होती गई और अब तो केवल हिंदुमों में तावीज़ों के लिये यंत्र लिखने के काम में उसका प्रचार रहा है जिससे हरेक बड़े शहर में पन्सारियों आदि की दुकानों पर वह मिल पाता है. भूर्जपत्र पर लिखी हुई पुस्तकें विशेष कर कश्मीर में मिलती हैं और कुछ उड़ीसा आदि में. हिंदुस्तान में पूना आदि के तथा यूरोप के कई प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकसंग्रहों में भूर्जपत्र पर लिखी हुई पुस्तकें सुरक्षित हैं जो बहुधा कश्मीर से ही ली गई हैं. भूर्जपत्र पर लिखी हुई सब से पुरानी पुस्तक, जो भय तक मिली है, खोतान से मिला हुआ खरोष्ठी लिपि के 'धमपद' (प्राकृत) का कुछ अंश है वह ई. स. की दूसरी या तीसरी शताब्दी का लिग्ना हुआ होना चाहिये 'संयुक्ता- गमसूत्र' (संस्कृत) ई स. की चौथी शताब्दी का लिम्वा हुआ मिला है. मि. यावर के पुस्तक ई.स. की छठी शताब्दी के पास पास के और बख्शाली का अंकगणित ई. म. की = वीं शताब्दी के आस पास का लिस्वा हुमा प्रतीत होता है. ये पुस्तक स्तृपों के भीतर रहने या पत्थरों के बीच गड़े रहने से ही इतने दीर्घकाल तक बचने पाये हैं परंतु खुले रहनेवाले भूर्जपत्र के पुस्तक ई. स. की १५वीं शताब्दी के पूर्व के नहीं मिलते जिसका कारण यही है कि मूर्जपत्र, नाड़पत्र या कागज़ जितना टिकाउ नहीं होता. ग कागज़ यह माना जाता है कि पहिले पहिल चीनवालों ने ई. म. १०५ में कागज बनाया, परंतु उससे ४३२ वर्ष पूर्व अर्थात् ई. स. पूर्व ३२७ में, निमार्कस, जो मिकंदर बादशाह के साथ हिंदुस्तान में माया था, अपने व्यक्तिगत अनुभव सन्यता है कि 'हिंदुस्तान के लांग रुई को कूट कर लिम्बने के लिये कागज बनाते हैं। इससे स्पष्ट है कि ई म पूर्व की चौथी शताब्दी में भी यहांवाले कई या पीपड़ों से कागज बनाते थे, परंतु हाथ से बने हुए कागज़ मस्ते और सुलभ नहीं हो सकते. यहां पर ताड़पत्र और भूर्जपत्र (भोजपत्र) की बहुतायत होने और नाममात्र के मूल्य से उनके बहुत मिल जाने से कागजों का प्रचार कम ही होना संभव है. यूरोप के बने हुए सस्तं और सुंदर कागजों के प्रचार के पहिले भी इस देश में चीथड़ों से कागज़ बनाने के कई कारग्वाने थे और अब भी हैं परंतु यहां के बने कागज़ चिकने न होने से पुस्तक लिखने की पकी स्याही उनमें और पार फैल जाती थी. इस लिये उनपर गेहूं या चावल के आटे की पतली लेई लगा कर उनको सुस्खा देते थे जिससे वे करड़े पड़ जाते थे. फिर शंख प्रादि से घोटने मे चिकने और कोमल हो जाते . देखो, ऊपर पृष्ठ २, टिप्पण २ २. बा, एपृ. २२६. .. इस विषय में मैक्समूलर लिखता है कि निमार्कस भारतवामियों का कां में कागज़ बनाने की कला का जानना प्रकट करता है ( देखो, ऊपर पृ. ३, टि.७), और बुलर निमार्कम के कथन का प्राशय अच्छी तरह कूट कर नय्यार किये दुए के कपड़ों के पट' से होना मानता है ( पे; पृ८ ) जो भ्रमपग्नि है क्यों कि 'पट' अब तक बनते हैं और सर्वथा कूट कर नहीं बनाये जाते ( उनका विवंचन पागे किया जायगा। निश्रार्कस का अमिप्राय कागज़ों से ही है .
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