लेखनसामग्री. १४४ तभी उनपर पुस्तक लिखे जाते थे. जैन लेटकों ने कागज़ की पुरतकें लिखने में ताडपत्र पर लिखी हुई पुस्तकों का नुकरण किया है, क्योंकि उनकी लिखी हुई पुरानी पुस्तकों में ताइपलों की पुस्तकों की नाई प्रत्येक पले का मध्य का हिस्सा, जहां डोरी डाली जाती थी, बहुधा खाली छोड़ा हुभा मिलता है जिसमें कहीं हिंगलू का वृत्त और चतुर्मुख वापी भादि के रंगीन या खाली चित्र मिकते हैं. इतना ही नहीं, ई. स. की १४ वी शताब्दी की लिखी हुई पुस्तकों में प्रत्येक पने और ऊपर नीचे की पटियों तक में छेद किये हुए भी देखने में भाये हैं यद्यपि उन छेदों की कोई पावश्यकता न थी. भारतवर्ष के जलवायु में कागज बहुत अधिक काल तक नहीं रह सकता. कागज पर लिखी हुई पुस्तकों में, जो कब तक इस देश में मिली हैं, सब से पुरानी ई. स. १९२३-२४ की पतलाई जाती है, परंतु मध्य एशिया में चारवंद नगर मे ६० माल दक्षिण 'कुगिभर' स्थान से जमीन में गड़े हुए भारतीय एस लिपि के ४ पुस्तक मि. वेयर को मिले जो ई. स. की पांचवीं शताब्दी के पास पास के होने चाहिये इसी तरह मध्य एशिया के काशगर भादि से जो जो पुराने संस्कृत पुस्तक' मिले हैं वे भी उतने ही पुराने प्रतीत होते हैं . रूई का कपड़ा रूई का कपड़ा जिसको 'पट' कहते हैं प्राचीन काल से लिखने के काम में कुछ कुछ माता था और अब तक भी श्राता है. उसे भी कागजों की तरह पहिले आटे की पतली लेई लगा कर सुखाते हैं, फिर शंख आदि से घोट कर चिकना यनाते हैं तब वह लिखने के काम में प्राता है. जैनों के मंदिरों की प्रतिष्ठा के समय अथवा उत्सवों पर रंगीन चावल भादि अन्नों से जो भिन्न भिन्न मंडल बनाये जाते हैं उनके पटों पर बने हुए रंगीन नकशों का संग्रह जैन मंदिरों या उपासरों में पुस्तकों के साथ जगह जगह मिलता है। ब्राह्मणों के यहां 'सर्वतोभद्र, लिंगतोभद्र' आदि ' अजमेर के मेठ कल्याण मल ढढा के यहां हस्तलिखित प्राचीन जैन एवं अन्य पुस्तको का बड़ा संग्रह है उसमें ज्योतिषमंबंधी पुग्नको नया विषयों के संग्रह का २१२ पत्रो पापक पुस्तक है जिसके पत्रांक प्राचीन और नवीन शैली दोनों तरह से दिये हप है उसके प्रारंभ में दो पत्रो मे र संग्रह की पत्रावसहित विपरसची भी लगी हुई है जो वि. सं. १४२॥ 1 स १३९९ । में उक्तहरूक. श्रीयि हिताय न हीनन्यार थी उक्त पुस्तक के प्रत्यक पत्र के मध्य के खाली छारे एप हिरम में बने हुहिगल के वृत्त में मुगल बना हुआ है और उपर नीचे की पाटियों में भी यही के २५ पत्रों के पक दूसरे पुस्तक में, जिसमें निकल पुरसको का साह है और जो १४ वी शताब्दी के नाम पाम का लला हा प्रतीत हता है। संघत नहीं दिया). इसी तरह रुगस्त्र बने हुए है .. गुजगत, काटिकावाड़ कच्छ सिधार लानंदंश के खानगी पुस्तकसंग्रहों की मचिया. बुलर संगृहीत, भाग ।, पृ.२३८, पुस्तकसरया१४७ देसी ऊपर पृ २, टि ४ ज. ए सो चंगा, जि ६६, पृ.१३-२६० इन पुस्तकों में से जो मध्य एशिया की गुप्तकाल की लिपि में हैं तो मध्य पशिमा केही लिखे एप है, परंतु कितने एक को भारतीय गुप्त लिपि के हैं। सेट ७. संरया ३ के '. in. c', e, ! टुकड़े मस्या ५-८, ११ मेट १३, १५, १६ । उनका भारतवर्ष से ही वहां पहुंचना संभव है जैसे कि होर्यु जी के मट के तारपत्र के भौर मि० बाबर के भोजपत्र के पुस्तक यहीं से गये हुए है. कुलर मादि कितने एक यूरोपियन विद्वानों ने यूरोप की नाई भारतवर्ष में भी कागज़ों का प्रचार मुसल्मानों ने किया ऐसा अनुमान कर मध्य एशिमा से मिले हुए भारतीय गुप्त लिपि के पुरतकों में से एक का भी यहां से वहां पहुंचना संदेहरहित नहीं माना परंतु थोड़े समय पूर्व रॉ० सर् भोरल स्टान को कोनी तुर्कस्तान से चीथड़ों के बने हुएई स.की दुरी शताम्दी के जो कागज़ मिले उनके आधार पर स० पार्नेट ने लिखा है कि यह संभव है कि मुगलो (! मुसल्मानो ) के माने से बहुत पहिले हिंदुस्तान में कागज़ का प्रचार होगा परंतु इसका उपयोग कम होता था (वाः .. पृ. २२९-३०) • अजमरे के पीसपंथी मानाय के बड़े धड़े दिगंबर जैन मंदिर में २० से अधिक पट रक्खे हुए हैं, जिनपर बर्मा मीप, तीन लोक, तेरा द्वीप, जंबूद्वीप भादि के विवरणसहित रंगीन चित्र में उनमें से कितने एक पुराने और कुछ "
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