प्राचीनलिपिमाला. के इकनों पर खुदे हुए मिलते है. पत्थर पर खुदे हुए लेखों को 'शिलालेख, और जिनमें राजानों आदि का प्रशंसायुक्त वर्णन होता है उनको 'प्रशस्ति' कहते हैं. जिस आधार पर लेख खुदवाना होता वह यदि समान और चिकना न हो तो पहिले टांकियों से छील कर उसे समान बनाते फिर पत्थर मादि से घोटकर वह चिकना बनाया जाता था. जिस भाशय का लेख लिखना होता ससकी रचना कोई कवि, विद्वान्, राजकीय अधिकारी या अन्य पुरुष करता. फिर सुंदर मचर लिखनेवाला नेखकर एक एक अथवा दो दो पंक्तियां स्याही से पत्थर पर लिखता और उनको कारी- गर (सलधार) खोदता जाना था. इस प्रकार क्रमशः सारा पत्थर खोदा जाता'. इस प्रकार से तैयार किये जाते हुए शिलालेख मैंने स्वयं देग्वे हैं. लिखने के पूर्व पंक्तियां सीधी लाने के लिये यदि पत्थर अधिक संवा होता तो सूत की पतली डोरी को गेरू में भिगो कर उससे पंक्तियों के निशान बनाते, जैसे कि लकड़ी के लडे को चीर कर तख्ते निकालनेवाले खाती लोग बड्डे पर बनाते है, और पत्थर कम लंबाई का होता तो गज या लकड़ी की पट्टी रख कर उसके सहारे टांकी मादि से लकीर का निशान बना लेते. मंदिर, पावडी आदि की भीतों में लगाये जानेवाल लेख पत्थर की छोटी बड़ी पदियों (शिलामों) पर खुदवाये जाकर पहुधा नाकों में, जो पहिले बना लिये जाते बे, लगाये जाते थे. ऐसे लेखों के चारों ओर पुस्तकों के पलों की नाई हाशिमा छोड़ा जाता था. कभी कभी खोदे जानेवाले स्थान के चारों ओर लकीरें। खुदी हुई मिलती हैं कभी वह स्थान पाव इंच से एक इंच या उससे भी अधिक खोद कर हाशिये से नीचा किया हुआ मिलता है. अधिक सावधानी से खुदवाये हुए लेखों में कभी पत्थर की चटक उड़ गई तो उसमें पत्थर के रंग की मिश्रधातु भर कर उस स्थान को समान बनाते थे और यदि अदर का कोई अंश घटक के साथ पड़ जाता तो उसको पीला उस धातु पर खोद लेते थे. बहुधा शिलालेखों के प्रारंभ में और कमी अंत में कोई मंगल सूचक सांकेतिक चिक, शन्दर या किसी देवता के प्रणामसूचक १. यह हाल सावधानी के साथ तय्यार किये हुए लेखो का है कई लेख खरदरे परथगे पर बेपरवाही के साथ सोदे हुए भी मिलते हैं. २. जिन शिलालेखों में राजा की तरफ्न की किसी प्राशा आदि का उल्लेख होना उन्हें राजकर्मचारीही तय्यार करते थे १. लेखक बहुधा ब्राह्मण, कायस्थ, जैन साधु या सूत्रधार (सिलावट ) लोग होमे थे. .. हिंदुओं के शिलालेखों के अक्षर पत्थर के भीतर खोदे जाते हैं परंतु मुसरमानों के अरबी या फारसी के लेखों के अक्षर उमडे हुए होते है और पत्थर का वह अंश जहां पर प्रक्षर नहीं होता टांकियों मे तोड़कर उड़ा दिया जाता है कोई कोई हिंदू मुसल्- मानों का अनुकरण कर उभरे हुए अक्षरवाले लेख भी बनाने लग गये परंतु ऐसे लेख बहुत ही कम मिलते हैं अबतक ऐसे केवल दो ही लेख मेरे देखने में आये हैं. एक तोमथुरा के म्युज़िश्रम में और दूसरा बाड़ी(धोलपुर राज्य में मैं वे दोनों मुसलमानों के समय के हैं. .. भशोक के गिरनार के लेख की १४ धर्माशाओं में से प्रत्येक के चारों ओर लकीर खुदीई है. वि.सं. १३७३ (ई. स १३१६) के लाडनू (जोधपुर राज्य में ) से मिले हुए लेख (जो गजपूताना म्यूजियम्, अजमेर, में रक्खा हुमा है) चारों भोर लकीर है (जि. १२, पृ.२४ के पास का सेट) • वसंतगढ़ (सिरोही राज्य में) से मिले हुए परमारगजा पूर्णपाल के समय के वि.सं १०६६ (ई स १०४२) के लेखका, जी राजपूताना म्युजियम् मे रक्खा हुआ है, खुदाहुमा अंश हाशिये से करीब पाव इंच नीचा है और यही रमले हुए मधुणा (बांसवाड़ा राज्य में ) के दो शिलालेखो का खुवाइमा अंश प्रायः एक इंच नीना है. उनमें से एक ( खंडित) परमार राजा चामुंडराज के समय का वि.सं. १९५७ (ई स. ११०१) का और दूसरा परमार राजा विजयराज के समय का वि.सं. १९६६ (ई.स.१९१०) का है. • गजपूताना म्यूज़ियम् (अजमेर) में अजमेर के चौहान गजा विग्रहराज(वीसलदेव )रचित 'हरकेलिनाटक' बी तथा सोमेश्वर पंडितरखित 'ललितविग्रहराजनाटक' की दो दो शिलाएं रक्खी हुई है. इन चारों शिलामों में कई जगह पातु भरी हुई है और कहीं उसपर अक्षर का अंश भी खदा हुआ है. चिकों में स्वस्तिक (बा.स.सई, जि. १, मेर ६ मा स.वे जि. ४. मेट ४६ लेख संख्या ५,६,७, १९, १३.१४ मावि ), चक (धर्मचक्र ) पर रहा हुमा त्रिशूल (चिरस प्रा. स. के.जि,४, सेट ४६, लेख संख्या ८, १०, १४ मादि), 'ओ' का सांकेतिक विज (देखो. लिपिपत्र १५, २१, २३ भादि के साथ दी हुई मूल पंक्तियों के प्रारंभ में) तथा कई अन्य विका मिलते है जिनका माशय डीक ठीक बात नहीं हुमा (पा. स.के. जि., मेट ४४, माजा का लेख , सेट क्य ६.१६ सेट ४६, राकेश २०, २२, २४, २६) . शम्मी में सितम्' (जि. १२, पृ. १९०के पास का मेट. लिपिपत्र ७८, ११, १५. १५ मादिकेसायदीई
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