पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१७७

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लेखनसामग्री. १४६ शब्द मिलने है. वर्तमान लेग्वनशैली के अनुसार उनमें पदच्छेद अर्थात् प्रत्येक शब्द का अलग अलग लिम्बना नहीं मिलता परंतु पंक्ति की पंक्ति पिना स्थान छोड़े लिखी जाती थी. कभी कभी शब्द अलग अलग भी लिखे मिलते हैं। परंतु किसी नियम से नहीं. विराम के चित्रों के लिये केवल एक और दो खड़ी लकीरों ( दंड ) का पहुधा प्रयोग होता था'. श्लोका बतलाने अथवा शब्दों या वाक्यों को अलग करने के लिये एक, और श्लोकांत या विषय की समाप्ति के लिये दो खड़ी लकीरें बहुधा बनाई जाती थीं: कहीं कहीं प्रत्येक पंक्ति में भाषा या एक श्लोक ही लिखा हुआ मिलता है और कभी कविताबद्ध लेखों में श्लोकांक भी पाये जाते हैं. कभी अंत में अथवा एक विषय की समाप्ति पर कमल , फल, वृत्त' या कोई अन्य चिक भी वोदा जाता था. लेखक जब . मूलपंक्तियों के प्रारंभ में ), 'स्वस्ति' (लिपिपत्र १७ की मूलपंक्तियों के प्रारंभ में ओं' के मकितिक चिह्न के बाद ), 'हरिः आम् स्वस्ति श्रीः' ('. जि.३, पृ. १४ के पास का प्लेट ) आदि । 'ओं ( सांकेतिक चिक से ) नमः शिवाय' (लिपिपत्र २१ की मूल पंक्तियों के प्रारंभ में ), 'ओं (सांकेतिक चिक से) नमो विष्णये' (लिपिपत्र २३ की मून पंनियों के प्रारंभ में), 'नमो अरहतो वर्धमानस्य' लिपिपत्र ५ की मूल पंक्तियों के प्रारंभ में ), 'भो ( मांकांतक चिझ मे । श्रो नमो वीनगगाय ( गजपुताना म्यूज़िश्रम में रक्खे हुप परमार गजा विजय- गज के समय के वि मं. ११६६ के शिलालख के प्रारंभ में ), 'श्री ( सकितिक विक्रम) नमो बुद्धाय' (ऐं , जि १२, पृ २८ के पाम का प्लेट ), 'श्रो नमो रक्षत्रयाय ( शेरगढ का लेख.६ : जि १४ पृ ४५ ) श्रादि लखों के अंत में कभी कभी 'श्रीः', 'शुभं भवतु', 'श्रीरस्तु आदि शब्द मिलते है और कभी कभी ॥ छ ॥' लिखा हुश्रा मिलता है या छ' प्राचीन 'थ' अक्षर का रूपातर प्रतीत होता है जा वास्तव में धर्मचक्र या मूर्य का सूचक होना चाहिये ५. अशोक के देहली। .जि १७ पृ ३०० से ३१० के बीच के प्लेट, जि १६, पृ १२२ और. १२४ के बीच के लट ), रधिश्रा, गांधश्रा, रामपुरया । ए जि . पृ २४८ स २५२ के बीच के प्लेट ), परिश्रा, निग्लिया ( ए जि ५. पृ. के पाम का प्लेट ) और मारनाथ (ईजि. पृ १२ क पाम का लट । कम्भा के लेखों वालमी के चटान की १ मा तक की धर्मशाओं । प. जि२ पृ. ४५० और १६ बीच के दा लंट , एवं कितनं एक अन्य लेखों में आ सवे, जि. ४. सेट ५२. लेखसंग्या ५ १०.१८.१६ प्लेट ५३. लेखसंख्या १३ १४, मंट ५४, लखमस्या ६: लेट ५६, लेखसंख्या ४; ऍ जि ८, पृ १७६ के पास का लेट, लव • • शमी या ममामवाले शब्दों के बीच स्थान छोड़ा पा मिलता है. । इन विगविगचक लीग के लिये कोई निश्चिन नियम नहीं था कही विना प्रायश्यकता के लगाई जाती थीं और कटी आवश्यकता होने पर भी छोड़ दी जाती थीं कही लग्न की प्रत्येक पंक्ति के प्रारंभ में ( बैरावग्न से मिले हुए वलभी संवत् ६२७ के लेख में प्रत्येक पंक्ति के प्रारंभ में दो दो बड़ी लकीर है: ए .जि ३ पृ ३०६ के पास का प्लेट ) और कहीं अंत में भी (अजमेर म्यूज़िश्रम में रानी चौहानों के किसी ऐतिहासिक काव्य की शिनाओं में से पहिली शिला की बहुधा प्रत्येक पति के अंत में एक या दो बड़ा लकीर है । मी लकीरें बिना श्रावश्यकता के मिलनी है ४. इन विगमसूचक लकीरों मे भी अक्षरो की नाई सुंदरता लाने का यत्न करना पाया जाता है कहीं खड़ी लकीर के स्थान में अर्धस कहीं उनके ऊपर के भाग में गीलाई या मिर की ग्नी आड़ी लकीर और की मध्य में बाड़ी लकीर लगी मिली है. ५. मौखरी प्रतिवर्मन के नागार्जुनी गुफा : लख को प्रत्यक पंक्ति में आधा । ली. गु . लट ३६ ) और अजंटा की गुफा के पक लेप ( प्रा. म ४ प्लेट ५६, यमण्या ४ । नधा गुलवाड़ा के पार की गुफा के घटोत्कच के लेख (प्रा स.जि ४ र ६. 1 में एक पक श्लोकही रषदा ( समुद्र के अलाहावा अशोक कं लग्नवाल स्तंभ पर खुद हुए लेख के श्लोकबद्ध अंश म ( को गु. मेट १) तथा ग्वालियर मेनिन ए पनिटार गजा भोजदेवशिलालव । श्राम १०३.४ प्लेट ७२ ) में श्लोकांक दिये है. जोधपुर में मिल हुण प्रतिहार गजा बाउक के लेख मे. जो गजपूनाना म्यूजिश्रम् । अजमेर ) में रकवा हुअा है, संयत के पूर्व कमल म्पदा है. ८. चाहमान विग्रहराज के हर्षनाथ के लेम्प की ३३ वी पंक्ति में विषय की समाप्ति पर फल खुदा है (जि २, पृ १२० के पास का सेट) ' परतायगढ़ ( गजपूनाने में । म मिले हुए कनाज के प्रतिहार राजा महंद्रपाल । दूर ) के समय के वि सं. २००३ (. स. १५६ ) के शिलालेख में, जो राजपूताना म्यूज़िश्रम् अजमेर ) में रकला हुआ है, १४ वीं और ३० वीं पंक्तियों में वृत्त (0) बने हुए हैं १२. घसंतगढ़ ( सिगेही राज्य में ) से मिले हुए परमार राजा पूर्णपाल के समय के वि. सं. १०६६ ( ई. स. १०४२) के शिलालेख के अंत में, तथा ऊपर दो जगह भिन्न भिन्न प्रकार के विश बने हुए हैं कितने एक लेखों के ऊपर के खाली हिस्सों में शिवलिंग, मंदी, वत्ससहित गौ, सूर्य या चंद्र मादि के चित्र भी खुदे मिलते हैं 0. -