पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१७८

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प्राचीनलिपिमाला. A किसी अक्षर या शब्द को भूल से छोड़ जाता तो वह भदर या शब्द या तो पंक्ति के ऊपर या नीचे भयवा हाशिये पर लिखा जाता था और कभी वह अक्षर या शब्द किस स्थान पर चाहिये था यह बतलाने के लिये या x चिक भी मिलता है जिसको 'काकपद' या 'हंसपद' कहते हैं।. भूल से अधिक लिम्वा हुमा अक्षर, शन्द, मात्रा या अनुस्वार मादि या तो टांकी से उड़ा दिया जाता या उस पर छोटी छोटी ग्व ही या तिरछी लकीर या लकीरें बना कर उसे काट दिया जाता था. कई लेखों के अंत में उनके लगाये जाने या उनसे संबंध रखनेवाले स्थानों के बनने का संवत्, ऋतु, मास, दिन, पच, तिथि मादि एवं उनके रचयिता, लेखक और खोदनेवालों के नाम भी दिये हुए मिलते हैं. मंदिर भादि की दीवारों के नाकों में लगाये जानेवाले लेव बहुधा एक ही छोटी या बड़ी शिला पर खुदे हुए होते हैं परंतु कभी पांच तक पर भी खुदे हुए मिलते हैं'. ये लेख प्राकृत. संस्कृत, कनड़ी. तेलुगु, तामिळ, प्राचीन हिंदी आदि भाषाओं में हैं. पुस्तकें भी चिरस्थायी रखने के लिये कभी कभी पटान या शिलाओं पर खुदवाई जाती थीं'. १. बुद्धगया से मिले हुए अशोकचल के लक्ष्मणसेन संपत ५१ के लेख की पहिली पंक्ति में 'तथागता हावदत्' में तो' लिखना रह गया जिमको पक्ति के ऊपर लिखा है और नीचे चित्र बनाया है (एँ ई. जि १२ पृ २८ के पास का प्लेट) वि. सं. १२०७ की महावन को प्रशस्ति कीवी पंक्ति में तस्याभूतनयो नयोन्नतमतिः' में दूसरा 'नयो' लिखना रह गया जिसको पंक्ति के नीचे लिखा है. उसी प्रशस्ति की १९ वी पंक्ति में [ = वे ] श्लोक का चतुर्थ चरण लिखना रह गया जो बाई ओर के हाशिये पर लिखा गया है और जहां वह चाहिये था उस स्थान पर पंक्ति के ऊपर ) चिक किया है ऐसे ही उसी प्रशस्ति की २० वी पंक्ति में [१७ वा ] श्लोक रह गया वह भी बाई ओर के हाशिये पर लिखा है और जहां वह चाहिये था वहां पति के ऊपर x विज किया है और वही चिक हाशिये पर (अंत में ) दिया है (ऐं ई जि २. पृ २७६ के पास का प्लेट). २. बिल्हारी के लेख की पहिली पंक्ति [ श्लोक १ मे पहिले तारगपनि प्रम्फार खुदा था परंतु पीछे से पातः' का विसर्ग टांकी से उड़ा दिया है तो भी नीचे की बिंदी का कुछ अंश दीखता है । ' ; जि १, पृ २५४ के पास का प्लट । उसी लेख की पांचवीं पंक्ति [ श्लोक ९] में 'लीलोलालितशार्चपर्खतपत खुदा था परंतु पीछे से 'शार्च के 'शा के साथ लगी हुई 'पा' की मात्रा की सचक खड़ी लकीर को तिरछी लकीर स काट दिया है कणस्वा के लख की १६ वी पंक्रि में 'यति- हीनमर्थशब्दहीनं' खुदा था परंतु पीछे से 'मर्थ' के दोनो अक्षरों के ऊपर पांच पांच छोटी खड़ी लकीरें बना कर उन्हें काट दिया है ( ; जि १६. पृ ५८ पास का प्लेट) • कहीं पुराने लेखों में संवत् के साथ ऋतु और दिन । 'कनिष्कस्य मं५ हे १दि । -एँ , जि १, पृ ३८१ ). कहीं ऋतु, मास और दिन ( 'सवत्मर पचविशे हेमंतमसे त्रितिये दिवस वीशे'- इ.जि. १, पृ ३८४), कहीं माम, पक्ष और तिथि (रुददास्रो वर्षे द्विसप्ततितमे ७०२ मार्गशीर्षबहुलप्रति - जि ८, पृ ४२ ) मिलते है कहीं संयत् के स्थान में गज्यवर्ष ( मन् जुलूस ) भी मिलत है चौथी शताब्दी के पीछे के लेम्वों में बहुधा संवन, माम, पक्ष तिथि श्रादि मिलते हैं ४ अषूणा ( यांसवाड़ा राज्य मे ) के मंडलसर के मंदिर में लगे हुए परमार चामुंडगज के वि सं ११३६ फाल्गुन सुदि ७ शुक्रवार के कविताबद्ध बड़े लेख में उसका रचयिता चंद्र, लेखक वालभ्यजाति का कायस्थ पासराज और खोद- नेवाला चामुंडक होना लिखा है . कुंभलगढ़ ( मेवाड़ में ) के कुंभस्वामी ( मामादेव । के मंदिर में लगा हुआ महाराणा कुंभकर्ण का लेख बड़ी बड़ी पांच शिलाओं पर खुदा हुआ था जिनमें से ४ के टुकड़े मिल गये हैं । प्राग्वाट (पोग्वाड ) श्रेष्ठी ( संठ) लोलाक ( लालिग ) ने बीजाल्यां । मेवाड़ में) के निकट के जैन मंदिर के पास के एक घटान पर 'उन्नतशिखरपुराण' नामक दिगंबर जैन पुस्तक वि सं १२२६ ( ई म १९७० ) में खुदवाया जो अब तक विद्यमान है. बीजोल्यां के विद्यानुरागी स्वर्गीय राघ कृष्णसिंह ने उसपर तथा उसके पास के दूसरे चटान पर खुदे हुए उक्त जैन मंदिर के संबंध के ही विशाल लेखपर भी ( जो उसी संवत् का है और जिसमें चाहमान से लगाकर सोमेखर तक की सांभर और अजमेर के चौहानों की पूरी वंशावली और लोलाक के वंश का वर्णन है) मेरे आग्रह पक्के मकान बनवा कर उनकी रक्षा का सुप्रबंध कर दिया है चौहान राजा विग्रहराज (बीसलदेव ) के बनाये हुए 'हरकेलिनाटक' की दो शिला, सोमेश्वर कविरचित 'ललितविग्रहराजनाटक की दो शिला तथा चौहानों के किसी ऐतिहासिक काव्य की पहिली शिला, ये पांचों अजमेर के ढाई दिन के झोपड़े से ( जो प्रारंभ में वीसलदेव की बनाई हुई पाठशाला थी ) मिली हैं और इस समय अजमेर के राजपूताना म्यूजियम में रक्खी हुई हैं. मालवे के प्रसिब विद्वान राजा भोजरचित 'कर्मशतक' नामक दो प्राकृत काव्य (..जि ८, पृ. २४३-६०) और राजकवि मदनरचित 'पारि- बातमंजरी(विजयी)नाटिका'- पंजि. प. १०१-१७, ये तीनों पुस्तक चार (मालवे में ) में कमल मौला नामक