पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१९९

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भारतीय संवत् १७१ अल्पेग्नी लिग्यता है कि 'विक्रमादित्य ने शक राजा को परास्त कर यह संवत् चलाया'. इस प्रकार इसके प्रचलित किये जाने के विषय में भिन्न भिन्न मत हैं. पहिले पहिल यह संवत् काठिभाषाड़ ना कच्छ से मिले हुए पश्चिमी क्षत्रपों के [शक ] संवत् ५२ से १४३ तक के शिलालेखों में तथा उन्हीं के सिक्कों में, जो [शक ] संवत् १०० (ई स. १७८) के पास पास मे लगा कर ३१० (ई.स 3८) से कुछ पीछे तक के हैं, मिलता है. उक्त शिलालेखों में केवल 'वर्षे' (संवत्मरे ) लिखा मिलता है, 'शक श्रादि कोई नाम 'वर्षे (संवत्) के साथ जुड़ा हुआ नहीं है, और सिकों में तो अंक ही मिलते हैं ('वर्षे भी नहीं ) संस्कृत साहित्य में इम मंवत् के साथ 'शक नाम जुड़ा हुआ (-शककाल) पहिले पहिल' वराहमिहिर की 'पंचसिद्धांतिका' में शक संवत् ४२७५ ( ई. स. ५०५ ) के संबंध में मिलता है. और शक संवत् ५०० (ई.स. ५७८ ) से लगा कर १२६२ (ई स. १:४०) तक के शिलालेखों और दानपत्रों में 'शकनृपतिराज्याभिपंकसंवत्सर, 'शकनृपतिसंवत्सर', 'शकनृपसंवत्सर, शकनृप- काल', शकसंवत्', 'शकवर्ष १, 'शककाल 'शककालसंवत्सर, 'शक'" और 'शाक" शन्दों का प्रयोग इस संवत् के वास्ते किया हुमा मिलता है जिससे पाया जाता है कि ई स ५०० के आस पास मे लगा कर शक संवत् १२६२ ( ई. स १३४० ) तक तो यह संवत् किसी शक राजा के राज्याभिषेक से चला हुआ या किसी शक राजा अथवा शकों का चलाया हुआ माना जाता था और उस समय तक शालिवाहन का नाम इसके साथ नहीं जुड़ा था , o ..सा प्र.जि. पृ६ गज्ञा चष्टनम ममातिकपुत्रम राजी भद्रदामम जयरामपुत्रम व दिपचाग ५९ २ फागुणाबहुलम हिनाय वी २ मदनेन सिहलपुत्रेसा कच्छराज्य के अंधी गाव में मिस हुए क्षत्रपों के लेखों की स्वर्गीय आचार्य वल्लभजी हरिदत्त की तय्यार की हुई छापों पर से राज्ञो महाक्षत्रपम्य गुभिरभ्यम्ननाम्न वर्ष दिमततितम ५. २। महाक्षत्रप रुद्रदामन के गिरनार के पास के अशोक के लखवाले घटान पर के लख मे ऍडजि = पृ ४२ । २. सिंहमरिचित लाकविभाग नामक संस्कृत जैन ग्रंथ में उक्त पुस्तक का शकाब्द ( शक संवत् । ३८० में बनना लिखा है ( मवन्मेर त द्वारिंगे काचीगाम वर्मण । अात्यग्रे शकान्दाना सिद्धंमतच्हनत्रये ॥ ( मोक्षविभाग नामक ११ वे प्रकरण के अंत की प्रशस्ति, श्लोक ४ ) परंतु यह मूल ग्रंथ नही किनु सर्वनंदि नामक मुनि के बनाये हुए प्राकृत ग्रंथ का परिवर्द्धित संस्कृत अनुषाद है और ई म की ग्यारहवीं शताब्दी के पीछ का बना हुआ है क्यों कि इसमें यतिवृषभरचित 'त्रिलोक्यविज्ञप्ति.' राष्टकट राजा अमोघवर्ष के समय के अर्थात ई म की हवीं शताब्दी के बने हुए 'उत्तरपुराण' नथा ई स की ११ वीं शताब्दी के पास पास के बन दूर नेमिचंद्ररचित त्रिलोकमार' मे भी श्लोक उद्धत किये हुए मिलने है संभव है कि सर्वनंदि का मूल प्राकृत ग्रंथ शक संवत् ३८० में बना हो. परंतु उममें इस संवत् के साथ 'शक' नाम जुड़ा हुआ था या नहीं इसका जब तक मुल ग्रंथ न मिल पावे तब तक निश्चय नहीं हो सकता ऐसी दशा में ११ वीं शताब्दी के पीछे के बने हुए लोकविभाग' के शकाब्द' को शक संघम् का मब से प्राचीन उल्लेख नहीं कह सकते समाश्विवंदमख्य गककालमपाम्य चैत्रशक्लादौ । पंचमिद्धांतिका १८ देखो. ऊपर पृ १६६ टिप्पण* शकनृपतिराज्याभिएकसवन्भरेष्वनिकालेषु पञ्चमु शंतम् । ऍ. जि १०. ५८ के पास का पेट । शकनृपतिसवमरेण चतांस्त्रशाधिकेषु पञ्चम्बतातेषु भाद्रपदामावास्याया सूर्यग्रहणानिमित्त (ई ए. जि ६. पृ ७३ । • शकनृपसत्रसंग्ष गरशिग्विनिषु व्यतीतेषु (ज्ये)ठमामशुक्रपक्षदशम्या पुष्यनक्षत्रे चद्रवारे ( एं; जि १२. पृ १६ ) ८. शकनृपकालातीतसवत्मग्म(गोतेषु मप्तमु(स) (पोटशोत्तरेषु वैशाखब(ब)हुलामावास्यामादित्यग्रहणपर्वणि (ऍ इंजि ३ पृ१०६). १. शकसवत् ८३२ वेशाग्वशुद्धपोगर्णमास्या महावेशाच्या ( . , जि १. पृ ५६) १०. एकादशोत्तरषदछनेषु शकवर्षेष्वतीतेषु .. कार्तिकपौगर्णमास्या (एँ. जि ६.८६) ११. सप्तस(स)त्या नवत्या च समायुक्तेसु(षु) सप्तसु [1] स(ग)ककाळे(ले) श्व(व)तीतेषु मन्मथाद्वयवत्सरे ( ज प सो. बंब जि १०, 9 १९ पंचसप्तत्यधिकएककालसवत्सरशतषटके व्यतीते सवत(त) ९७५....माघमासरथसप्तभ्या (इ. ऐं, जि ११. पृ ११२ ) २९ शक ११५७ मन्मथसंवत्सरे श्रावणबहुल ३. गुरो ( की. लि.ई. स पृ. ६३, लेखसंख्या ३४८). १४. शाके ११२८ प्रभवसंवत्सरे श्रावणमासे पौगीमास्या (ऍ.. जि. १. पृ. ३४३)