१८० प्राचीनलिपिमाला. इस संवत् को १००० वर्ष का चक्र मान नहीं सकते. वीर रवि रविवर्मन् के त्रिवंद्रम् से मिले हुए शिलालेख में कलियुग संवत् ४७०२ (वर्तमान-गत ४७०१ ) और कोल्लम् संवत् ७७६ दोनों लिखे हुए हैं। जिससे भी यहीं पाया जाता है कि गत कलियुग संवत् और कोल्लम संवत् के बीच का अंतर (४७०१-७७६ = ) ३६२५ है डॉ. कीलहॉर्न ने कोल्लम संवत्वाले कई शिलालेग्वों में दिये हुए संवत् , संक्रांति, वार आदि को गणित से जांच कर कोल्लम् संवत् में ८२४-२५ मिलाने से ई स. होना निश्चय किया है (ई.एँ; जि २५, पृ ५४) और दीवान बहादुर पल डी. स्वामिकन्नु पिल्ले ने ई. स. में से ८२५ घटाने से कोल्लम संवत् का यनना माना है (इंडिअन् क्रॉनॉलॉजी, पृ. ४३). यह संवत् मलबार से कन्याकुमारी नक और तिन्नेवेल्लि जिले में अब तक प्रचलित है. उत्सरी मलबार में इसका प्रारंभ कन्या संक्रांति ( मौर आश्विन ) से और दक्षिणी मलबार तथा तिनवेल्लि जिले में सिंह मंक्रांति (मौर भाद्रपद) मे होता है. इसका वर्ष सौर है और मलयार में महीनों के नाम संक्रांतियों के नाम ही हैं; परंतु निन्नवेल्लि जिले में उनके नाम चैत्रादि महीनों कं लौकिक रूप से हैं ( चैत्र को 'शित्तिरै या 'चित्तिरै' कहते हैं ). वहां का मौर चैत्र मलबार- वालों का मेष है. इस संवत् के वर्ष बहुधा वर्तमान ही लिग्वे जाते हैं इस संवत्वाला सब से पुराना लेग्व कोल्लम मंवत् १४६' का मिला है - १५-नवार ( नाल ) संवम डॉ भगवानलाल इंद्रजी को नेपाल मे जो वंशावली मिली उममें पाया जाता है कि दूसरे ठाकुरी वंश के राजा अभयमल्ल के पुत्र जयदेवनलत ने नेवार संवत् चलाया. उमने कांनि- पुर और ललितपन पर राज्य किया और उसके लोट भाई ग्रानंदमल्ल न भक्तपुर ( भाटगांव ) वमाया और यह वहीं रहा इन दोनों भाइयों के ममय कणाटकवंश को स्थापित करनेवाले नान्य- देव ने दक्षिण मे आकर नेपाल मंत्र है या शक मंवत् १५ श्रावण शुदि ७ को ममग्र देश (नेपाल) करंग काई काई पेसा भी मानत है कि शंकराचार्य के न्वर्गवास में यह यत् चला है । गापीनाथ गव का मजा दुआ कोल्लम संवत् का वृत्तांत) यदि शंकराचार्य का म स 3 । विक्रम संवत १५% कलियुग मेवा ३० में और देहांन ३० वर्ष की अवस्था में । करलोनत्ति : अनुमार । माना जाव ना उनका देहाताई म (७२+३= । ८२६ में दाना स्थिर होता है यह समय कोल्लम संवन् के प्रारंभ के निकट आ जाता है परंतु पमा मानन कलिय मलयारवाली की जनश्रुति के सिवाय कोई अन्य प्रमाण नहीं है मी दशा में यह कह सकते है कि यह संयन किम्मने किस घटना की याद गार में चलाया यह अब तक अनिश्चित ही है. दा प्रा मी. जि २.२८. प...जि, पृ २३४ डॉ भगवानलाल इंद्रजी को मिली हुई नेपाल की वंशावली में जयदेवमल्ल का नयार ( नेपाल ) संवत् चलाना लिखा है परंतु जनरल कनिंगहाम लिखता है कि राजा गयवंय ने ई स ८८० में नेपाल में यह गंवम् प्रचलित किया (क, ईई पृ. ७४) गघवदेव का नाम डॉ. भगवानलाल इंद्रजी की वंशावली तथा नेपाल के इतिहास के अंग्रेजी पुस्तकों में नहीं मिलता परंतु नेपाल के गजा जयस्थितिमाल (ई स १३८०-१३६४ ) के समय की लिखी हुई वंशावली की पुस्तक में जो प्रॉ सेसिल बेंडाल को नेपाल से मिला. उक्त गजा का नाम मिलता है और नेपाल में मिले हुए हस्तलिखित संस्कृत पुस्तकों के अंत में मिलनेवाले यहां के राजाश्रा के नाम और मंयनों को देखते हुए गघवदेव का यह संवत् चलाना अधिक 2
- शकराचार्य प्रादुर्भावस्तु विक्रमार्कसमयादतीते पचचत्वारिंगदधिकाष्टगतीमिते मवत्सरे करलदेशे कालपीग्राम.... । तया च सप्रदायविद
बाहुः । निधिनागेभवहषब्दे विभवे मासि माधवे । शुझे तिथौ दशम्या तु गकरार्योदयः स्मृतः ॥ इीत ३५। ....तथा च शंकरमंदारसौरभे नीलकंठभट्टा अपि एवमाहुः । प्रास्त तिष्यशरदाम् प्रतियातवत्याम् एकादशाधिकशतोनचतुःसहस्याम् । ३८ । ( यशेश्वर शास्त्री का 'आर्यविद्यासुधाकर' पृ. २२६, २२७ )