ब्राह्मी लिपि. श्रीयज्ञशातकर्णि के द्राविडी लिपिवाले लग्ब से लिये हैं और दूसरों से भिन्न होने के कारण अंत में अलग दिये हैं. लिपिपत्र १० वें की मूल पंक्तियों का नागरी अन्जरांतर- रामो क्षहरासस नहपामस . राज्ञो महाक्षत्रपम समोतिकपुत्र- सष्टनस राज्ञो महाक्षचपस ईश्वरदत्तम वर्षे प्रथमे . राज्ञो महाक्षचपस दामसेनस पुषस गज्ञः क्षचपस यशोदामः . गजो महाक्षचपम दामसेनपुषस राज्ञो महाक्षचपस दामजदश्रियः . राज्ञो महाक्ष- चपस रुद्रसेनपुषस गज्ञो महाक्षतपम भदामः. ग चपस रुद्र- मैनपुषस गज्ञ क्षत्रपम यशदान :. राज्ञ महाक्षचपसम्वम(स्वामि)रुद्रद(दा)मपुषस लिपिपत्रावां. 'मथुरा के इस लिपिपत्र में भाजा, पिसलम्बोग, महाड आदि दक्षिण की भिन्न भिन्न गुफाओं के कई लेग्वोर मे मुख्य मुख्य अक्षर ही उद्धत किये गये हैं. भाजा के लेग्य में 'ठ' को त्वरा मेलिग्वने के कारण उमकी आकृति वृत्त सीन बन कर उममे भिन्न बन गई है. महाड के लेग्न में 'म की प्राकृति दो अलग अलग अंशों में विभक्त हो गई है वास्तव में ये दोनों अंश जुड़ने चाहिये थे. कन्हेरी के लग्व के 'लो के माध लगी हुई 'ओ की मात्रा ( कलम को उठाये बिना मात्रा महित अक्षर लिग्वने के कारण ) गांटवाली यन गई है और दक्षिणी शैली के पिछले कई लग्बों में गेमा ही 'लो' मिलता है ( देवो लिपिपत्र ३६, ४३, ४४, ४६, ४७ प्रादि ) यदि कलम को उठा कर मावा का चिक लगाया जाता तो 'लो' की आकृति लिपिपत्र छठे में लेग्यों में दी हुई · लो की आकृति मे मिलती हुई होनी चाहिये थी. कार्लि के लेख में 'न' अक्षर की जो आकृति मिलती है वह भी कलम को उठाये बिना पृग अक्षर लिग्वन में ही बनी है परंतु कलम को ऊपर की तरफ न बढ़ा नीचे की तरफ बढ़ाकर बाड़ी लकीर ग्वींची है जिममे ग्रंथिवाला रूप (जैमा कि लिपिपत्र ३, ६, ७.८, ६ आदि में है ) न बन कर यह नया विलक्षण म्प बन गया है, जिसके परिवर्तित रूप लिपिपत्र १३ और १४ में मिलते हैं. जुन्नर के लेग्व में मि में जो 'म'का रूप मिलता है उमीके परिवर्तित रूप में लिपिपत्र १३ और १४ में दिये हुए 'म' के विलक्षण रूप बने हैं, जो अन्य लेग्वों में नहीं मिलने. 'व और 'म के मिर विकोण आकृति के ( भीतर मे ग्वाली) बने हैं और कहीं 'इ' और 'ई की मात्राओं में सुंदरता लाने का यत्र करने मे उनकी आकृतियां पहिले में अधिक विलक्षण हो गई है (देखो, रि, रि, लि, वी). 'रय' में प्रथम 'य' तो प्राचीन रूप का और दूसरा 'य'नागरी मे मिलता हुआ है जो कलम को उठाये बिना ही पूरा अक्षर लिग्वने से बना है. नामिक के लेखों के अक्षरों में 'म' के साथ लगी हुई 'ऊ की मात्रा के दोनों छोर एक दूसरे के माथ मिल गये हैं और 'न्ये में 'यौंको 'न्' की ग्वड़ी लकीर के मध्य में जोड़ा है. कूड़ा के लेखों के । ये मूल पंक्तियां क्षत्रपो के सिको पर के लेखों से है भाजा-पा. स.ई, जि४ प्लेट ४४, लेखसंख्या. पित्तलखोग-श्रा सके।जि.४, प्लंट ४४, लेख- सं ६. महाड-मा.स.के.जि ४, प्लेट ५६, लेखसं. २, ३,४ सेलारवाडी--मा स.के. जि.४, प्लेट ४८, लेखसंख्या १६. बेडसा-मा. स.जि. ४, प्लेट ४७, लेखसंख्या ३. कन्हेरी-मा.स के. जि.५, प्लेट ५१, लेखसंख्या २, ३, ४, ५, १४, १५ कार्मि-प्रा.स.के.जि.४, प्लेट ४७,४८.५१, ५४, शेखसंख्या ३, ५, ६, ११, १३, १७, १९, २०, २१, २२ जुलर-मा.स.के.जि,प्लेट ४८-५१,लेखसंख्या२-६,१०,१४,१५,२०,२४,२५, २८. मासिक-जिE, नासिक केलेलो का प्लेट ५, लेखसंख्या १८ प्लेट ३, संपोट,सं.:: प्लेट ५, सं २३. मा.स.के.जि.४, पोट ४५ोल- संख्या १६, २२, २४, २५ (मासिक). -मा.स.के.जि.पोट ३५-३६ वेवसंस्था १, ५, ६, ११, १३. २०, २४.
पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/८३
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