पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/९०

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६४ प्राचीनलिपिमाला तथा कई अन्य लेखों में : एवं जापान के होर्युजी नामक स्थान के बौद्ध मठ में रक्खी हुई 'प्रज्ञापारमिताहृदयसूत्र' और 'उष्णीषविजयधारणी' नथा मि. बावर की प्राप्त की हुई हस्त लिम्वित पुस्तकों में भी मिलती है. लिपिपत्र १८वां. यह लिपिपत्र मंदसार से मिले हुए राजा यशोधर्मन् (विष्णुवर्द्धन) के मालव (विक्रम) सं. ५८६ (ई.स. ५३२) के शिलालेख से तय्यार किया गया है. इसमें 'अ वर्तमान दक्षिणी शैली के नागरी 'अ' से मिलता हुआ है. 'औ पहिले पहिल इसी लेख में मिलता है 'उ, च, ड, ढ, त, द, न, प, म, र, ल, ष, स और 'ह अक्षरों के रूप वर्तमान नागरी के उक्त अक्षरों से मिलते जुलते ही हैं. हलंत व्यंजनों को सिरों की पंक्ति से नीचे नहीं किंतु सस्वर व्यंजनों के साथ समान पंक्ति में ही लिग्वा है परंतु उनके सिर उनसे जुड़े हुए नहीं किंतु विलग ऊंचे धरे हैं और 'त्' के नीचे नागरी की 'उ की मात्रा का सा चिक और बढ़ा दिया है. श्रा की मात्रा मीन प्रकार की मिलती है जिनमें से एक रूप वर्तमान नागरी की 'आ' की मात्रा मे मिलना हुआ है (देखो, ना, मा). 'इ' की मात्रा चार प्रकार से लगी है जिनमें से एक वर्तमान नागरी की 'इ की मात्रा के समान है ( देवो, 'कि'). 'ई' की मात्रा का जो रूप इस लेख में मिलता है उसका अंत नीचे की तरफ़ और बढ़ाने से वर्तमान नागरी की '६' की मात्रा बन जाती है (देखो, 'की'). 'उ' और ' की मात्राएं नागरी के समान हो गई हैं (दग्यो, दु, रु, वृ, वृ, ). "' की मात्रा नागरी में मिलती हुई है परंतु अधिक लंबी और कुटिल आकृति की है. (देग्यो, 'ने'). 'ऐ' की मात्रा की कहीं नागरी की नाई दो तिरछी, परंतु अधिक लंबी और कुटिल, रेम्वाएं मिलनी हैं और कहीं एक वैसी रेखा और दूसरी व्यंजन के सिरे की बाई तरफ़ नीचे को झुकी हुई छोटी मी रंग्या है (देखा, 'मैं ). श्री की मात्रा कहीं कहीं नागरी में किसी प्रकार मिलनी हुई है (दग्वा. नो, शा). 'न' में क और 'ष', और 'ज्ञ' में 'ज' और 'प्र स्पष्ट पहिचान में आते है लिपिपत्र १८ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अचरांतर अथ जयति जनेन्दः श्रीयशोधर्मनामा प्रमदवनमिवान्तः शत(प)सैन्यं विगाय वकिस लयभागमृषां विधत्ते तरुणत- रुलतावहौरकौतौर्विनाम्य । आजौ जितौ विजयंत जगतौम्पुनश्च श्रीविष्णवईननराधिपतिः म ग्व प्रख्यात औलिकरलाञ्छन आत्म- पडशो(वंशो) येनोदितोदितपदं गमितो गरौयः । प्राचो नृपान्सुबृहतश्च बहनुदोषः सामा युधा च वशमान्प्रविधाय येन नामापरं (एं. जि.४, पृ ३१०), ग्वालियर से मिले हुए तीन खखों में से एकदि.सं १३२(ई.स ८४ ) का (जि.१, पृ. १४४-७), दूसरा वि. सं. ६३३ ( स ७)का (ई.जि १ पृ.१००पास का प्लेट) और तीसरा बिना संवत् का (मा. स. ई.स. १६०३-४. पोट ७२ ). और पहोमा से मिला हुमा हर्ष संवत् २७१ । ई.स २) काल (पं.जि, पृ. १८६-८). प्रतिहार वंशी राजा भोज के लेखो नया उसके पीछे के महेन्द्रपाल (प्रथम), महीपाल, श्रादिनों की शिपियों में कोई स्पष्ट अंतर नहीं है तो भी सिपियों के विभागों के कविपत समय अनुसार मोजदेव (प्रथम) सकलो की लिपि की गवना कुटिसलिपि में करनी पड़ी है. । .मा: (चार्य सीरीज़)जि... भाग.रा. प्रा. स. (परिमल सीरीज़ ) जि. २२ वी. . पसी, गु.:ोट २२. २