पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/९१

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कुटिल लिपि. ६५ जगति कान्तमदा दुरापं राजाधिराजपरमेश्वर इत्युदृढम् । निग्धश्यामाम्मुदाभैः स्थगितदिनकतो यज्वनामाज्यधूमैरम्मी मेध्यं . है लिपिपत्र १६ वां यह लिपिपत्र 'उष्णीषविजयधारणी' नामक ताड़पत्र पर लिखी हुई पुस्तक के अंत में दी हुई पूरी वर्णमाला, मि. पावर के प्राप्त किये हुए प्राधीन हस्तलिखित पुस्तका, मौखरी शर्ववर्मन् की भासीरगढ़ से मिली हुई मुद्रा', मौखरी अनंतवर्मन के २ संखों तथा महानामन के बुद्धगया के लेख ' से तय्यार किया गया है. 'उष्णीषविजयधारणी' के अंत की वर्णमाला के अक्षरों में अ, उ, ऋ, क, ख, ग, घ, क, च, ज, ट, ड, ढ, ण, त, थ, द, न, प, म, य, र, ल, व, श, ष, स और 'ह' नागरी के उन अक्षरों से बहुत कुछ मिलते हुए हैं और 'व' तथा 'व में भेद नहीं है. की तीन बिंदियों में से नीचे की विदीको वर्तमान नागरी के 'उकी मात्रा का सा रूप दिया है. 'इ' का यह रूपई.स. की १३ वीं शताब्दी तक कहीं कहीं मिल पाता है. 'ऋ', 'ऋ', 'लु' और 'लु' पहिले पहिल इसी में मिलते हैं. वर्तमान नागरी के 'ऋ' और इन्हीं में बने हैं परंतु वर्तमान 'लु' और 'तृ' के मूल संकेत नष्ट हो चुके हैं जिससे अब 'ल' के साथ 'ऋ' और 'ऋ' की मात्राएं रूगा कर काम चलाया जाता 'मी' की प्राकृति नागरी के वर्तमान 'इ' से मिलती हुई है परंतु उसका सिर बाई तरफ अधिक लंबा हो कर उसका बांया अंन नीचे की मुड़ा है 'ओ' का यह रूप पिछले लेखों तथा प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों में भी मिलता है और कोई कोई लेम्बक अब तक 'ओं लिखने में के ऊपर रेफ तथा अनुस्वार लगा कर इस प्राचीन 'ओ की स्मृति को जीवित रखते हैं. ', 'ज' और 'ट के सिरों के दाहिनी तरफ के अंत में 1 विक लगाया है. वह अथवा उसका परिवर्तित रूप पिछले लेग्वों में मिलता है (देखो, लिपिपत्र २१, २३, २४, २८, २९, ३०, ३१, ३२, ३, ४). वर्तमान नागरी के ङ में, 'ड की आकृति बना कर उसके आगे बिंदी लगाई जाती है जो इसी चिझ का स्थानांतर है और उसथा ‘ड की आकृति एकसा बन जाने पर उन अक्षरों का भेद बतलाने के लिये ही लगाई जाने लगी है. 'ओं का सांकेतिक चिक नागरी के ७ के अंक सा है जो वास्तविक 'ओं' नहीं किंतु कल्पित चिक है. यह कई रूपानरी के साथ पिछले लेखों तथा प्राचीन जैन, बौद्ध और ब्राह्मणों के हस्तलिखित पुस्तकों के प्रारंभ में मिलता हैं. महानामन् के लेख में 'ऊ की उ के साथ | चिक जाड कर बनाया है परंतु अन्यत्र पहुधा सम- कोणवाला नहीं किंतु गोलाईदार चिक मिलता है जिसका अग्रभाग नीचे की ओर झुका हुआ होता है (देखो, इसी लिपिपत्र में उष्णीषविजयधारणी के अंत की वर्णमाला का 'ऊ' और लिपिपत्र २४, २५, २८, ३१, ३४, ३५ में भी ). 'त्' का रूप उपर्युक्त यशोधर्मन् के लेख (लिपिपत्र १८ में) के 'त का सा ही है परंतु इसमें सिर की बाड़ी लकीर को दाहिनी ओर भुका कर बहुत नीचे बड़ा लिया है संभव है कि नागरी का वर्तमान हलंत का विकसीस निकाह और यिंजन के उपर लिखे जाने की अपेक्षा नीचे लिखा जाने लगा हो 'य'. 'य' से मिलता हुआ है और रेफ को पंक्ति से ऊपर नहीं किंतु मीध में लिखा है और ये तथा 'य' में भेद बतलाने के लिये ही 'य के नीचे के दाहिनी मोर के अंश को गोलाई के साथ ऊपर बढ़ाया है. ऐसा ही 'ये' अन्य लेम्बों में भी मिलता है (देखो, लिपिपत्र १७, २०, २१, २२, २८, २६). । ऐ.मा: (मार्य सीरीज़ ) जि १, भाग ३, प्ले. १-४. मा. स. (पीरियल सीरीज़ ) जि २२ वीके कई प्लेट . फ्ली: गु: प्लेट ३०A ४ फ्ली। गुमेट ३९ A और B. ५ फ्ली: गुः पोट ४१ A २