पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/९८

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प्राचीनलिपिमाला. लिपिपत्र २५ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- पारामोद्यामवापौषु देवतायतनेषु । कृतानि क्रियमाणा- नि यस्याः कर्माणि सर्वदा ॥ दीनानाथविपन्नेष करुणाग्वि- सचेतसः । सत्वेष भुनते यस्या विप्रसंघा दिने दिने । इत्यं विविक्तमनयोः परिवईमानधर्माप्रब(बान्धविगलत्कलिकाल- लिपिपत्र २६ वा. यह लिपिपत्र कन्नौज के गाहडवालवंशी राजा चंद्रदेव और मदनपाल के वि. सं. ११५४ (ई.स. १०६८) के दानपत्र', हस्तलिखित पुस्तकों तथा हैहय( कलचुरि )वंशी राजा जाजल्लदेव के समय के शिलालेख से नय्यार किया गया है. चंद्रदेव के दानपत्र की इके परिवर्तित रूप से वर्तमान नागरी का' बना है (देखो, लिपिपत्र-२ में' की उत्पत्ति) 'धा में 'मा की मात्रा की ग्वड़ी लकीर को 'ध के मध्य से एक नई भाड़ी लकीर खींच कर जोड़ा है, जिसका कारण यह है कि 'घ' और 'व' के रूप बहुधा एकसा बन गये थे जिससे उनका अंतर बतलाने के लिये 'घ' बहुधा बिना सिर के लिखा जाना था, यदि कोई कोई सिर की लकीर लगाते थे तो बहुत ही छोटी. ऐसी दशा में 'ध के साथ 'मा' की मात्रा सिर की बाड़ी लकीर के साथ जोड़ी नहीं जाती थी, क्योंकि ऐसा करने से 'धा और 'वा' में अंतर नहीं रहता. इसी लिये 'धा के साथ की 'भा की मात्रा मध्य से जोड़ी जाती थी. चंद्रदेव के दानपत्र के अक्षरों की पंक्ति के अंत का 'म' उक्त दानपत्र से नहीं किंतु चंद्रदेव के वंशज गोविंदचंद्र के सोने के सिक्केपर के लेग्य से लिया गया है और इसीसे उसको अंत में अलग धरा है. जाजल्लदेव के लेख में हलंत और अवग्रह के चिक उनके वर्तमान चिन्हों के समान ही हैं, उक्त लेग्य के अक्षरों के अंत में 'और 'ई अलग दिये गये हैं जिनमें से 'इ'बीजोल्यां (मेवाड़ में) के पास के चटान पर खुदे हुए चाहमान (चौहान ) वंशी राजा सोमेश्वर के समय के वि सं. १२२६ (ई.स. ११७० ) के लेख से लिया गया है और ई चौहान वंशी राजा पृथ्वीराज (तीसरे) के समय के वि सं १२४४ (ई म ११८७) के वीसलपुर (जयपुर राज्य में ) के लग्ब से लिया गया है. उक्त दोनों अक्षरों के ऐसे रूप अन्यत्र कहीं नहीं मिलते. लिपिपत्र २६ वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- नइंश्यो हैहय बासौधतोजायन्त हयाः । .. ..त्यसेन- प्रिया सतौ॥३॥ तेषां हैहयभूभुजां समभवइंसे (शे) म दौश्व- रःोकोकल इति स्मरप्रतिकृतिर्विस्व(च)प्रमोदी यतः । येमायं चितसौ(शौ)या......मेन मातुं यशः स्वीयं प्रेषितमुचकैः कियदिति ब(ब)प्रांडमन्तः क्षिति ॥ ४॥ अष्टादशस्य रिपुकुंभिवि- लिपिपत्र २७ यां. यह लिपिपत्र पाबू के परमार राजा धारावर्ष के समय के वि. सं. १२६५ (ई.स. १२०%) के मोरिभागांव के लेख',जालोर के चाहमान (चौहान) राजाचाधिगदेव के समय के वि.सं. १३२१ (ई.स. । ये मूल पंक्तियां राजा लल्ल के समय के उपर्युक्त देवल के लेख से है. ...'; जि १८ पृ. १ के पास का प्लेट. ..पे; प्लेट ६, अक्षरों की पंक्ति १५-१६ ४ जि.१, पृ. १४ के पास का प्लेट । ये मूल पंक्तियां हैहयवंशी राजा जाजलदेव के रखपुर के लेख से है (.: जि. १, पृ ३४ के पास का पोट). • राजपूनाना म्यूज़ियम (अजमेर ) में रक्खे दुप उक्त लेख की अपने हाथ से तय्यार की छाप से.