पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/११

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यद्यपि बौद्ध तथा जैन धार्मिक ग्रंथो से नाटक तथा अभिनय का पता चला है पर उन ग्रंथों का भी समय निश्चित नहीं है, ऐसा कहकर नाट्य कला को पूर्वोक्त समय से प्राचीनतर नहीं कहना निश्चित हो गया है। अस्तु, इस काल-निर्णय से एक बात निश्चित रूप से कही जाने लगी कि ग्रीक नाट्यकला का प्रभाव भारत की नाट्यकला पर अवश्य पड़ा है। यह प्रभाव कहाँ तक पड़ा है इसपर यूरोपीय विद्वानों में विशेष तर्क वितर्क हुआ है और अंत में निश्चय हुआ कि दोनो में साम्य अधिक है तथा भारतीयों में यह गुण भी है कि दूसरों की वस्तु वे इस प्रकार ले लेते हैं कि पता नहीं चलता। अस्तु, भरतमुनि का नाट्यशास्त्र प्रथम ग्रंथ है, जिसमें नाट्यकला के विषय का पूरा ज्ञान भरा हुआ है। रंगस्थल के निर्माण, दृश्य-पटी तथा अभिनेताओं के वेश भूषा, मंगल-पूजन तथा गान, गायन-वादन तथा भावप्रदर्शन आदि सबका पूर्ण रूप से विवेचन किया गया है। रूपकों के भेद आदि इतने विवरण से लिखे गए हैं कि यह ज्ञात होता है कि लेखकों के सामने अच्छा नाटकीय-साहित्य मौजूद था, जो अब लुप्त हो गया है। इस ग्रंथ का निर्माण-काल भी संदिग्ध है पर यह ग्रंथ अवश्य ही कालिदास के पूर्व भास के समय में तैयार हुआ होगा। अग्निपुराण में भी नाट्यकला पर कई स्कंध लिखा मिलता है पर उसका भी समय निश्चित नहीं है।

नाट्य-शास्त्र के अनंतर धनंजय कृत दशरूप और धनिक कृत उसी ग्रंथ की व्याख्या अवलोक का समय आता है, जो दशवीं शताब्दी की कृतियाँ हैं। इसमें रूपक के दश भेदों का वर्णन है, इसलिए इसका इस प्रकार नामकरण हुआ है। यह नाट्य-