रंतिवर्मा भी पाठ मिलता है पर लिपि के कारण चन्द्रगुप्त के स्थान पर इन अन्य नामों का लिखा जाना अधिक संगत ज्ञात होता है। उक्त श्लोक में चन्द्रगुप्त के दो विशेषण पार्थिवः और श्रीमद्वंधुभृत्यः हैं। सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने बड़े भाई सम्राट् रामगुप्त के अत्यंत अनुयायी थे और उन्हीं के लिए यह पद आया है। नाटककार इस पद में विष्णु तथा चन्द्रगुप्त में समानता बतला रहा है और चन्द्रगुप्त नाम से मौर्य सम्राट् तथा अपने आश्रयदाता दोनो का स्मरण कर रहा है। राक्षस के मुख से कहलाने से यह मौर्य सम्राट का द्योतक हुआ और साथ ही कवि अपने आश्रयदाता चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य पर भी इसे घटाता है।
निर्माण काल के निरूपण का एक अन्य मार्ग पाटलिपुत्र नगर की स्थिति है। नाटक में पाटलिपुत्र का जो भूगोल मिलता है, वह मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त के समय की स्थिति के अनुकूल न होगा प्रत्युत् नाटककार के समय ही के अनुकूल होगा क्योंकि नाटककार ने भौगोलिक स्थिति का जो कुछ वर्णन किया है, उसका नाटक में अन्य तात्पर्य से ही उल्लेख हो गया है। नाटक से ज्ञात होता है कि पाटलिपुत्र सोन नदी के दक्षिण में था और सुगांगप्रासाद गंगाजी पर था। चीनी यात्री फाहियान पाटलिपुत्र को मगध की राजधानी लिखता है पर सुएनच्वांग इसे उजड़ा हुआ लिखता है। आधुनिक पटना शेरशाह का बसाया हुआ है। पाटलिपुत्र की स्थिति के बारे में अन्य विद्वानों ने जो कुछ तर्क किया है, उसमें वे प्रोफेसर विलसन के अनुसार मुद्राराक्षस का रचनाकाल ग्यारहवीं शताब्दि मानकर चले हैं अतः उक्त विवेचना से कोई फल नहीं निकला। मौर्य सम्राट् चंद्रगुप्त के समय के पाटलिपुत्र की स्थिति या अवस्था