'अब राजा चंद्रगुप्त राज्य करें'। ग्रंथ-निर्माण का समय कुछ भी हो पर चंद्रगुप्त से भरतवाक्य में मौर्य चन्द्रगुप्त ही का भास होता है। नाटककार विशाखदत्त ने अपने आश्रयदाता का नाटक में कहीं उल्लेख नहीं किया है और यदि उस आश्रयदाता का नाम भी चन्द्रगुप्त हो और वह भी मौर्य सम्राट् ही सा प्रतापी रहा हो, तो उसका भी उल्लेख इसमें मान लेना समीचीन हो सकता है।
मुद्राराक्षस की एक हस्तलिखित प्रति में चंद्रगुप्त के स्थान पर अवतिधर्मा पाठ है। इस नाम के दो राजाओ का पता चलता है। एक काश्मीर नरेश थे, दूसरे कान्यकुब्जाधिपति हर्षवर्द्धन के बहनोई मौखरीवंश के ग्रहवर्मा के पिता थे। नाटककार ने अवंतिवर्मा का नाम अपने आश्रयदाता की कोर्ति बढ़ाने के लिए ही लिखा होगा पर उसे काश्मीर-नरेश पुष्कराक्ष के रूप में मलयकेतु के अधीन तथा उसी के द्वारा उसकी अपमृत्यु कराकर मलिन न करते। इस विचार से काश्मीर के अवंतिवर्मा का उल्लेख श्लोक में होना अग्राह्य है । अब दूसरे अवंतिवर्मा के संबंध में विचार करना चाहिए। थानेश्वर के वैसवंशी राजा प्रभाकरवर्द्धन की पुत्री राज्यश्री से कन्नौज के राजा अवंतिवर्मा के पुत्र ग्रहवर्मा का विवाह हुआ था। अवंतिवर्मा के सिक्कों पर गु० स० २५० ( वि० सं० ६१२ ) मिला है, जिससे ज्ञात होता है कि ये गुप्त वंश के आधीन थे। विशाखदत्त का इन अवंतिवर्मा के समय में नाटक रचना संभव हो सकता है। इन विचारों से कवि विशाखदत्त का समय ईसवी छठी शताब्दि का उत्तरार्द्ध निश्चित होता है। प्रतिवर्मा के सिवा दंतिवर्मा और