पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१०६

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पाटना। कवि जी नायिका बनकर तथा अंग्रेजों का स्वाँग बनाकर अपनी रक्षा करना चाहते हैं। संपादक जी अपने आर्टिकिलबाजी की प्रशंसा में लगे हुए हैं। महाराष्ट्री सज्जन स्वदेशी वस्त्र पहिनना, कल आदि व्यवसाय बढ़ाना तथा सार्वजनिक संस्थाएँ स्थापित करना बतलाते हैं। देशी सभ्य कुछ नहीं बतला सकते, केवल अपना चापलूसी-प्रेम दिखलाते दूसरों की खिल्ली उड़ाते हैं पर विद्योन्नति, एकता, कला शिक्षण की ओर भी दृष्टि देते हैं। इसी समय डिसलायल्टी रूपी पुलीस आती है और सबको साथ लिवा जाती है।

छठे अंक में भारत-भाग्य आता है और प्राचीन गौरव तथा वर्तमान दुर्दशा का संक्षेप में परन्तु अत्यंत ओजपूर्ण भाषा में दिग्दर्शन कराता हुआ कहता है कि एक समय था कि यही भारत सारे संसार का केंद्र हो रहा था और इसकी समता करने की संसार के किसी देश में क्षमता नहीं था पर नहीं मालूम कि इसने विधि का क्या कसूर किया कि उसने रुष्ट होकर इसे मिट्टी में मिला दिया। यदि यह देश मिट भी जाता तो भी कुछ ताष होता पर नहीं यह परतंत्रता, ईर्ष्या-द्वेष आदि संसार के यावत् कलंको से लांछित होते हुए अभी मिटा नहीं। ऐसे निर्जीव शक्तिहीन देश का मिट जाना ही श्रेयस्कर है। भारत सागर को संबोधित कर कहता है कि---

घेरि छिपावहु विंध्य हिमालय।
करहु सकल जल भीतर तुम लय॥
धोवहु भारत अपजस-पंका।
मेटहु भारत भूमि कलंका॥