पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१०७

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अंत में भारत भाग्य आत्मघात कर लेता है।

'यह दुःखांत कर दिया गया है। इसमें अंत में नैराश्य का भाव उत्पन्न होता है पर होना चाहिए भारतोदय करने की दृढ़ता का भाव।' यह एक प्रसिद्ध विद्वान का कथन है पर नहीं कह सकता कि उन्होने देश-दशा पर कहाँ तक विचार किया है। इस रूपक को लिखे साठ वर्ष के ऊपर हो गए पर देश की दशा उस समय से कितनी ऊँची उठी है या कितने नीचे गिरी है कोई शांत हृदय से बैठकर सोचे तो सिवा नैराश्य के आशा की झलक नहीं दिखाई पड़ती। 'आशावादिहिं हरिअरै सूझै' पर फल कुछ नहीं। अपना दोष, अपनी कमी, अपनी कमजोरी पहिले देखना चाहिए। 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्थान' में पहिले किसकी रक्षा करनी है? 'शस्त्रेण रक्षितं राष्ट्र शास्त्रविद्याम् प्रयुज्यते' पर शस्त्र से रक्षा करेगा कौन? जब रक्षक हिंदू रह जायँगे तभी हिदी तथा हिन्दुस्थान भी रहेगा, नहीं ता इनमें से एक भी न रहेगा। मूल रहेगा तभी शाखा पल्लवित रहेगी। आज हिंदुत्व का कितना पतन हो रहा है, हिंदू बने रहते तथा अपने को हरिजन कहते हुए हिंदू ही अपने धर्मशास्त्र जला सकते हैं। अन्य धर्म ग्रहण कर लेने पर हिंदू जो न कर डालें वह अकथ्य है। एक मुसलमान या ईसाई अन्य धर्म ग्रहण कर लेने के बाद भी अपने पूर्व धर्म के मान्य ग्रंथों की अप्रतिष्ठा नहीं करेगा। हिंदू ही संसार भर में ऐसे मिलेंगे जो स्वधर्म से साधारण कारण से भी रुष्ट होकर उसके विरुद्ध सब कुछ करने को तैयार हो जाते हैं, हिंदू ही हैं जो हिंदू रहते हुए अपनी मातृभाषा हिंदी नहीं बत- लाते हुए उस पर गर्व करते हैं और हिंदुओं ही में अभी प्रांतीयता