(४)
शास्त्र के आधार ही पर लिखा गया है पर बहुत कुछ संक्षेप कर बोधगम्य कर दिया गया है। इसके अनंतर चौदहवीं शताब्दि विक्रमाब्द के मध्य में विद्यानाथ ने प्रतापरुद्रीय तथा विद्याधर ने एकावली लिखा। प्रतापरुद्रीय में नाटक तथा काव्य दोनों पर संक्षेप में लिखा गया है और वह विशेष महत्व का नहीं है। एकावली इससे अधिक महत्व की तथा उपयोगी बनी। इसी शताब्दी में शिंग भूपाल ने रसार्णवसुधाकर की रचना की थी। इस शताब्दि के प्रायः अंत में विश्वनाथ कविराज हुए, जिन्होंने साहित्य दर्पण की रचना की है। यह ग्रंथ समग्र काव्य शास्त्र पर है और इससे कई परिच्छेदो में नाट्य-शास्त्र के नियम आदि भी दिए गए हैं। यह ग्रंथ बहुत उपयोगी हुआ है और इसी से इसका प्रचार भी काफी है। इसके बाद रूप गोस्वामी की नाटक चंद्रिका, सुंदर मिश्र का काव्य प्रदीप आदि कई ग्रंथ लिखे गए, पर वे विशेष महत्व के नहीं हुए।
यहाँ तक नाट्य-शास्त्र पर विचार किया गया, अब नाटकों पर दृष्टि देना चाहिए क्योंकि इतने छोटे निबंध में विशेष विवरण नहीं दिया जा सकता। अभी कुछ ही दिन हुए कि कालिदास के पहिले के नाटककारों का पता नहीं था पर अब अश्वघोष, भास आदि का पता चला है। सुवर्णाक्षी के पुत्र अश्वघोष के एक नाटक शारद्वती-पुत्र प्रकरण का कुछ अंश दो अन्य नाटकों के अंशों के साथ तालपत्रों पर लिखे गए प्राप्त हुए हैं, जो सभी बौद्ध कृतियाँ है। बुद्ध-चरित्रकार अश्वघोष सौभाग्य से बौद्ध था, इसलिए उसकी प्राचीनता में विशेष संदेह की गुंजाइश नहीं रह सकी। इसने कई अन्य ग्रंथ भी