पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१२०

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नवोदिता हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका सन् १८८४ ई० के अंकों में प्रकाशित हुए थे परन्तु भारतेन्दु जी के अस्त हो जाने से यह पूरा न हो सका । बा० राधा कृष्णदास ने अंतिम तीन दृश्य लिखकर इसे पूरा किया था। इसमें उस सती सावित्री के उपाख्यान को नाटक रूप दिया गया है जिसका प्रतिवर्ष ज्येष्ठ महीने की अमावास्या को स्त्रियाँ उत्सव मनाती हैं । लाला श्रीनिवासदास तप्ता- संवरण नाटक इसी पातिव्रत्य-महात्म्य घर लिख चुके थे और वह हरिश्चन्द्र मैगजीन में प्रकाशित भी हो चुका था परन्तु कहा जाता है कि भारतेन्दु जी को यह पसंद नहीं आया अतः उन्होंने इस गीति रूपक को लिखा था।

प्रथम दृश्य मंगल पाठ मात्र है, जिसमें हिमालय की तराई में तीन अप्सराएँ गाती हुई दिखलाई गई हैं। तीन गान हैं, प्रथम दो में पातिव्रत्य का गुण-गायन है और तीसरे में प्रकृति का वर्णन है । दूसरा दृश्य सत्यवान के तपोवन का है। दूर से गान सुनकर युवक तपस्वी के हृदय पर उसका कुछ असर होता है पर वह शीघ्र ही दूसरी चिंता में पड़ जाता है । गाते हुए सावित्री सखियों के साथ आती है, धन, ऋतु तथा आश्रम की बात हो रही है कि वह सत्यवान को देखती है। उधर सत्यवान भी सावित्री को देखता है और दोनों में आकर्षण उत्पन्न हो जाता है। सखी द्वारा वे एक दूसरे का परिचय पाते हैं और वह दृश्य समाप्त होता है।

तीसरा दृश्य वैतालिकों के गाने से आरंभ होता है । चार कवित्तों में एक महाकवि देव का है और तीन भारतेंदुजी के हैं। दो में प्रेमयोगिनी पर वसंत का सुंदर रूपक बांधा गया है और