पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१२१

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तीसरे में वियोगिनी को योगिनी से बढ़कर सिद्ध किया गया है। 'ध्यान करती हुई सावित्री आँखें खोलती है और अपने विचार स्पष्ट रूप में प्रकट करती है। उसके एक एक शब्द में एक उच्च आदर्श की पत्नी का चित्रण किया गया है। पातिव्रत्य की निर्मल उपदेश धारा प्रवाहित को गई है। सखियाँ आती हैं और उसको सत्यवान के प्रेम के विरुद्ध समझाते हुए उसे इस मनोर्थ से निवृत्त करना चाहती हैं पर इस पर उसे क्रोध आ जाता है और आवेश में कहती है "निवृत्त करोगी? धर्म पथ से? सत्य प्रेम से? और इसी शरीर में? "कैसे शब्द चुनकर रखे गए हैं कि हृदय पर चोट पर चोट देते है और उपदेशक को एक दम निरुत्तर कर देते हैं। चौथे दृश्य में सत्यवान के पिता, माता तथा ऋषि गण दिखलाई पड़ते हैं। नम्रता, दान, औदार्य के विषय में बातचीत होती है और सावित्री-सत्यवान का विवाह निश्चित होता है। भारतेन्दु जी ने यहीं तक लिखा था। इसके अनंतर पाँचवे दृश्य में धन देवी तथा वन देवता आते हैं और सावित्री-सत्यवान के निवास से धन को शोभा-वृद्धि की सूचना देते हैं। छठे दृश्य में सावित्री तथा सत्यवान का प्रेमालाप होता है, सत्यवान लकड़ी लेने जाता है और उसके अनंतर अशकुन होने से सावित्री घबड़ा कर खोजने जाती है। सातवे दृश्य में मूर्च्छित सत्यवान को पाकर सावित्री उसका उपचार करती है, यमदूत पाते हैं पर पातिव्रत्य के तेज से डर कर चले जाते हैं और तब धर्मराज स्वयं पाते हैं। सावित्री धर्मराज से कई वर माँगती है, जिसे देने के अनंतर उन्हें वाध्य हो सत्यवान को जीवित छोड़ना पड़ता है और यह रूपक यहीं समाप्त होता है।