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धनंजय-विजय
इससे तुम वीर रस का कोई अद्भुत रूपक खेलकर मेरे गदाधर इत्यादि साथियो को प्रसन्न करो।" ऐसा कौन सा रूपक है? (स्मरण करके) अरे जाना।
सिखवत आप सरस्वती नित बहु विधि की नीति॥
ताही कुल में प्रगट भे नारायन गुनधाम।
लह्यो जीति बहु वादिगन जिन वादीश्वर नाम॥
अभय दियो जिन जगत को धारि जोग-संन्यास।
पै भय इक रवि को रही मंडल भेदन त्रास॥
तिनके सुत सब गुन भरे कविवर कांचन नाम।
तो उस कवि का बनाया धनंजय-विजय खेलै। (नेपथ्यय की ओर देखकर) यहाँ कोई है?
(पारिपार्श्वक आता है)
पा०-कौन नियोग है कहिए?
सू०-धनंजय-विजय के खेलने में कुशल नटवर्ग को बुलायो।
पा०-जो आज्ञा।[जाता है
सू०-(पश्चिम की ओर देखकर)
तेजपुंज अरजुन सोई रवि सों कढ़त लखात॥