पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१३०

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धनंजय-विजय
अब भीलन की भाँति इमि छिपिकै चोरत गाय।
कुल-गुरु-ससि, तुव नीचपन, लखि कै रह्मौ लजाय॥

अमा०-देव!

जदपि चरित कुरुनाथ के ससि-सिर देत झुकाय।
तऊ रावरो विमल जस राखत ताहि उचाय॥

अ०-(कुछ सोचकर) कुमार नगर के पास घरे हुए शस्त्रों को लेने रथ पर बैठकर गया है, सो अब तक क्यो नहीं आया?

(उत्तर कुमार आता है)

कु०-देव, आपकी आज्ञानुसार सब कुछ प्रस्तुत है, अब आप रथ पर विराजिए।

अ०-(शस्त्र बाँधकर रथ पर चढना नाट्य करता है)

अमा०-(विस्मय से अर्जुन को देखकर)

रनभूषन भूषित सुतन, सुषन सब गात।
सग्द सूर सम धन-रहित सूर प्रचंड लखात॥

(नायक से)

दच्छिन खुर महि मरदि हय गरजहिं मेघ-समान।
उड़ि रथ-धुज आगे बढ़हिं तुव बस व़िजय-निसान॥

अ०-अमात्य ! अब हम लोग गऊ छुड़ाने जाते हैं। आप नगर में जाकर गोहरण व्याकुल नगरवासियों को धीरज दीजिए।