पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१३२

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धनंजय-विजय
करिवर मद-धारा तिया रमत रसिक जो पौन।
सेाई केलिमद गंध लै, करत इतैही गौन॥

अ०-वह देखो कौरवो की सेना दिखा रही है।

चपल चवँर चहुँ ओर चलहिं सित छत्र फिराहीं।

उड़हिं गीधगन गगन जबै भाले चमकाहीं॥
घोर संख के शब्द भरत बन मृगन डरावति।
यह देखौ कुरुसैन सामने धावति आवति॥
(बाँह की ओर देखकर उत्साह से)

बन-बन धावत सदा धूर धूसर जो सेाहीं।
पंचाली-गल-मिलन-हेतु अब लौं ललचौहीं॥
जो जुवती-जन-बाहु-बलय मिलि नाहि लजाहीं।
रिपुगन ! ठाढ़े रहौ सोई मम भुज फरकाहीं॥
(नेपथ्य में)

फेरत धनु टंकारि दरप शिव-सम दरसावत।
साहस को मनु रूप काल-सम दुसह लखावत॥
जय-लक्ष्मी सम वीर धनुष धरि रोष बढ़ावत।
को यह जो कुरुपतिहि गिनत नहिं इतही आवत॥

(दोनों कान लगाकर सुनते हैं)

कु०-महाराज ! यह किसके बड़े गंभीर वचन है?

अ०-हमारे प्रथम गुरु कृपाचार्य के।