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भारतेंदु-नाटकावली
(फिर नेपथ्य में)

शिव-ताषन खांडव-दहन सेाई पांडवनाथ।
धनु खींचत घट्टा पडे दूजे काके हाथ॥
छूटि गए सब शस्त्र तबौं धीरज उर धारे।
बाहु-मात्र अवशेष दुगुन हिय क्रोध पसारे॥
जाहि देखि निज कपट भूलि ह्वै प्रगट पुरारी।

साहस पै बहु रीझि रहे आपुनपौ हारी॥

अरे यह निश्चय अर्जुन ही है, क्योकि--

सागर परम गँभीर नध्यो गोपद-सम छिन मैं।

सीता-विरह-मिटावन की अद्भुत मति जिन मैं॥
जारी जिन तृन फूस हूस सी लंका सारी।
रावन-गरब मिटाइ हने निसिचर-बल भारी॥
श्रीराम-प्रान-सम, बीर-वर, भक्तराज, सुग्रीव-प्रिय।
सोइ वायुतनय धुज बैठि कैगरजि डरावत शत्रु-हिय॥

(दोनों सुनते हैं)

कु०-आयुष्मान्,

भरो बोर रस सों कहत चतुर गूढ अति बात।
पक्षपात सुत सों करत को यह तुम पै तात॥

अ०-कुमार ! यह तो ठीक ही है, पुत्र सा पक्षपात करता है, यह क्यों कहते हो ! मैं आचार्य का तो पुत्र ही हैं।