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धनंजय-विजय
(नेपथ्य में)
द्रोन ! अस्त्र भृगुनाथ-लहे सब रहौ चढ़ाई॥
अश्वत्थामा ! काज सबै कुरुपति को साधहु।
दुरमुख ! दुस्सासन ! विकर्ण ! निज ब्यूहन बाँधहु॥
गंगासुत शांतनु-तनय बर भीष्म क्रोध सों धनु गहत।
अ०-(आनंद से) अहा ! यह कुरुराज अपनी सैन्य को बढावा दे रहा है।
कु०-देव ! मैं कौरव योधओ का स्वरूप और बल जानना चाहता हूँ।
अ०-देखो इसके ध्वजा के सर्प के चिह्न ही से इसकी टेढाई प्रगट होती है।
जाके चित सौजन्य भाव नहिं नेकु लखानो॥
विष जल अगिन अनेक भॉति हमको दुख दीनो।
कु०-और यह उसके दाहिनी ओर कौन है?
अ०-(आश्चर्य से)
कृष्णा-पट खींच्यौ निलज यह दुस्सासन सोय॥