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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१३५

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भारतेंदु-नाटकावली

कु०-अब इससे बढ़कर और क्या साहस होगा?

अ०-इधर देखो (हाथ जोड़कर प्रणाम करके)

कंचन-वेदी बैठि बड़ोपन प्रगट दिखावत।

सूरज को प्रतिबिंब जाहि मिलि जाल तनावत॥
अस्त्र उपनिषद भेद जानि भय दूर भजावत।

कौरव-कुल-गुरु पूज्य द्रौन आचारज आवत॥

कु०-यह तो बड़े महानुभाव से जान पड़ते है।

अ०-इधर देखो।

सिर पै बाँकी जटा-जूट-मंडित, छवि धारी।

अस्त्र-रूप मनु आप, दूसरो दुसह पुरारी॥
सत्रुन कों नित अजय मित्र को पूरनकामा।

गुरु-सुत मेरो मित्र लखौ यह अश्वत्थामा॥

कु०-हाँ और बताइए।

अ०-

धनुर्वेद को सार जिन घट भरि पूरि प्रताप।
कनक-कलस धरि धुज धस्यौ, सो कृप कुरु-गुरु आप॥

कु०-और यह कुरुराज के सामने लड़ाई के हेतु फेट कसे कौन खड़ा है?

अ०-(क्रोध से)

सब कुरुगन को अनय-बीज अनुचित अभिमानी।

भृगुपति छलि लहि अस्त्र वृथा गरजत अघखानी॥
सूत-सुअन बिनु बात दरप अपनो प्रगटावत।

इंद्रशक्ति लहि गर्व-भरो रन कों इत आवत॥