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धनंजय-विजय


देखने ही से वृक्षों को जलाते हुए, ये कैसे-कैसे डरावने साँप निकले चले आते हैं।

विद्या-दुष्ट मनोरथ सरिस लसैं लॉबे दुखदाई।

टेढ़े जिंमि खल-चित्त भयानक रहत सदाई॥
बमत बदन विष निंदक सो मुख कारिख लाए।

अहिगन नभ मैं लखहु धाइ कै चहुँ दिस छाए॥

इंद्र-क्या खांडव वन का बैर लेने आते हैं?

विद्या -आप शोच क्यों करते हैं; देखिए, अर्जुन ने गारुड़ास्त्रर छोड़ा है।

निज कुल गुरु तुव पुत्र सारथिहि तोष बढ़ावत।

झपटि दपटि गहि अहिन टूक करि नास मिलावत॥
बादर से उड़ि खींचि खींचि दोउ पंख हिलावत।

गरुड़न को धन गगन छयो अहि हियो डरावत॥

इंद्र-(हर्ष से) हाँ तब।

प्रति०-देखिए, यह दुर्योधन के वाक्य से पीड़ित होकर द्रोणाचार्य ने आपके पुत्र पर वारणास्त्र छोड़ा है।

विद्या०-(देखकर) वैनायक-अस्त्र चल चुका, देखिए--

रँगे गंड सिंदूर सों, घहरत घंटा घोर।

निज मद सो सींचत धरनि, गरजि चिकारहिं जोर॥
सँड़ फिरावत सीकरन धावत भरे उमंग।

छावत धावत घन सरिस मरदत मनुज मतंग॥

इंद्र-तब, तब।