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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१४३

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भारतेंदु-नाटकावली

विद्या-तब अर्जुन ने नरसिंहास्त्र छोड़ा है, देखिए-

गरजि गरजि जिन छिन मैं गर्भिनि गर्भ गिरायो।

काल सरिस मुख खोलि दॉत बाहर प्रगटायो॥
मारि थपेड़न गंड सुंड को मॉस चबायो।
उदर फारि चिक्कारि रुधिर पौसरा चलायो॥
करि नैन अगिनि सम मोछ फहराइ पोंछ टेढ़ी करत।

गल-केसर लहरावत चल्यौ क्रोधि सिंह-दल दल दलत॥

इंद्र-तो अब जय होने में थोड़ी ही देर है।

विद्या०-देव ! कहिए कि कुछ भी देर नहीं है।

गंगा-सुत के बधि तुरग, द्रोन-सूत हति खेत।

करन-रथहि करि खंड बहु, कृप कहँ कियो अचेत॥
और भजाई सैन सब, द्रोनसुवन-धनु काट।

तुब सुत जोहत अब खड़ो, दुरजोधन की बाट॥

प्रति०-दुर्योधन का तो बुरा हुआ।

विद्या-नहीं।

व्याकुल तुव सुत-बान सों विमुख भयो रन-काज।
मुकुट गिरन सों क्रोध करि फिर्यो फेर कुरुराज॥

(नेपथ्य में)

सुन-सुन कर्ण के मित्र!

सभा मॉहि लखि द्रौपदिहिं क्रोध अतिहि जिय लेत।
अग्रज परतिज्ञा करी तुव उरु तोड़न हेत॥